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रश्मि बंसल का कॉलम: बोरियत पनपने दें, इससे भी आजादी महसूस होती है Politics & News

रश्मि बंसल का कॉलम:  बोरियत पनपने दें, इससे भी आजादी महसूस होती है Politics & News


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9 घंटे पहले

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रश्मि बंसल, लेखिका और स्पीकर

अरसा हो गया था हॉल में पिक्चर देखे हुए। कई बार मन करता था, फिर आलस आ जाता, ओटीटी पर आएगी तो घर पर देख लेंगे। एक दिन मॉल में घूमते हुए प्लान बन ही गया। बड़े पर्दे पर देखने का मजा ही कुछ और था। इसी तरह बहुत दिन बाद ट्रेन से सफर किया, अच्छा लगा।

एक जमाना था जब हवाई जहाज में बैठना बड़ी बात थी। वैसे प्लेन का एक फायदा जरूर है। दो घंटे मोबाइल बंद हो जाता है। कुछ साल पहले हर किसी का सपना था कि मेरे हाथ में फोन हो। पता नहीं था कि दिन भर मक्खी की तरह रिंगटोन भिनभिनाएगी।

तो ऐसा है, टेक्नोलॉजी की वजह से हमारी जिंदगी में काफी बदलाव आते रहते हैं। शुरू में विरोध होता है, क्योंकि हम नया तरीका अपनाने से डरते हैं। लेकिन कुछ समय बाद नई टेक्नोलॉजी के इतने दीवाने हो जाते हैं कि पुराने से मुंह ही मोड़ लेते हैं। पर जैसे दिन के बाद रात आती है, ठीक वैसे ही, मन में बात आती है कि ये जिंदगी जो इतनी तेज हो गई है, देसी से अंग्रेज हो गई, इसमें थोड़ी स्थिरता आए। कुछ देर खाली बैठा जाए। जहां कोई मोबाइल का घंटी न बजे। सिर्फ खामोशी ही रहे।

कुछ लोग कहेंगे खाली बैठना ठीक नहीं, इसलिए आज बच्चों को भी खाली समय नहीं दिया जाता। स्कूल से घर आने के आधे घंटे बाद से ट्यूशन शुरू हो जाते हैं। या एक्स्ट्रा क्लास जैसे कराते, डांस इत्यादि। हमें डर लगता है बोरियत से।

इसलिए हम किसी ना किसी तरह व्यस्त रहते हैं। मगर मनोवैज्ञानिकों का कहना है कि बोर होना कोई बुरी बात नहीं। खासकर बचपन में। जिस बच्चे को बोर होने की इजाजत हो, वो खुद बोरियत से निकलने का तरीका ढूंढता है।

बोरियत के मारे बच्चा अपने मन से मनोरंजन क्रिएट करेगा। जैसे चादरों का टेंट बना सकता है। या चिंदियों से ड्रेस बनाकर डॉल सजा सकता है। इससे उसमें एक तरह की स्वाधीनता और रचनात्मकता पनपने लगती है।

ये सिद्धांत बड़ों पर भी लागू होता है। हैरी पॉटर की लेखिका जेके रोलिंग को ही देख लें। 1990 में वो मैनचेस्टर से लंदन का सफर कर रही थीं। खिड़की से बाहर देखते-देखते उनके मन के पर्दे पर एक दुबले-पतले चश्मीश लड़के का चित्र छा गया। और उसके जीवन की काल्पनिक कहानी बुनने लगीं।

आज का दौर होता, तो वही रोलिंग मोबाइल पर रील्स देखकर टाइमपास करतीं। वो शून्यता नहीं बनती, जो एक रचनात्मक कार्य के लिए जरूरी है। तो दिमाग का इधर-उधर घूमना कोई बुरी बात नहीं। बशर्ते पूरे दिन नहीं, संयम से करें।

मेरा एक दोस्त एक बड़ी कंपनी का सीईओ है। कोविड के दौरान उसने कभी बर्तन घिसे। बर्तन धोते-धोते एहसास हुआ, जैसे हाथ चल रहे हैं अपने आप। बिजनेस में जो समस्या चल रही थी, अचानक उसका समाधान मन में गूंज उठा।

आप भी ऐसी फिजिकल एक्टिविटी करें, जैसे पैदल चलना, तैराकी, साइकिल चलाना, तो आपका मन शांत हो जाता है। और कुछ अलग तरह के ख्याल आते हैं। ये आपका अवचेतन (सब-कॉन्शियस) मन है, जो चेतना की सतह के नीचे है। मगर अत्यंत प्रभावशाली।

दुनिया के सबसे बड़े लेखक और कलाकार इस शक्ति को जानते हैं। आप भी ये कर सकते हैं। आज़ादी का दिवस है कल। आपका दिल भी गा रहा है- मुझे आजादी दो।
(ये लेखिका के अपने विचार हैं)

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