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- Rashmi Bansal’s Column God Has Other Work To Do, Just Provide A Flying Bed.
रश्मि बंसल, लेखिका और स्पीकर
एक जमाना था जब घर से लड़की विदा होती थी पालकी में। हाथों में कलीरे होते थे, सोने के नहीं, मखाने और गोंद के लड्डू के। कि सफर लंबा है, लड़की को खाना मांगने में शर्म आएगी, तो साथ में ही कुछ बांध देते हैं। ससुराल पास ही क्यूं न हो, वहां तक पहुंचने में वक्त तो लगेगा। फिर आई बैलगाड़ी, फिर बस और ट्रेन। पर अब है हवाई जहाज का जमाना, हर कोई चाहता है कम से कम समय में सफर तय हो जाए।
जब मैं आईआईएम में स्टूडेंट थी तो दिमाग में कभी ऐसा ख्याल नहीं आया कि हम प्लेन से घर जाएं। टिकट महंगा लगता था और अहमदाबाद से मुंबई का सफर एक रात का ही तो था। अब हाल यह है कि होस्टल में लंबा वीकेंड हुआ तो बच्चे सीधा ऐप पर टिकट लेकर घर पहुंच जाते हैं, अपने बिना धुले कपड़ों का गट्ठर सूटकेस में डालकर।
क्योंकि पैसे की कमी नहीं, कैम्पस में फ्रेंड्स के साथ होली-दिवाली मनाने का चाव नहीं। चलो अच्छा है, घर की वैल्यू तो कुछ समझ में आ गई। कोविड काल से तो यह ट्रेंड और भी क्लीयर हो गया- हर कोई हवाई जहाज का दीवाना हो गया।
अब एयरपोर्ट पर हर चौथा बंदा ऐसा दिखता है, जो शायद पहली बार प्लेन से सफर कर रहा है। सीट-बेल्ट वाला भाषण जब एयर होस्टेस देती है, वो ध्यान से सुनते हैं, लेकिन फिर भी मदद की जरूरत पड़ती है। सो क्यूट!
खैर, लोग तो हवा में उड़ान भरने को आतुर हैं, लेकिन हमारी आबादी के लायक सर्विस ही नहीं। पिछले 3-4 साल से एयरलाइंस कह रही हैं, हमने प्लेन ऑर्डर किए हैं, आएंगे। अब प्लेन ऐसी चीज तो है नहीं, जो अलीबाबा डॉट कॉम से चाइना से फट आ जाए। ना जी, दुनिया में दो ही कंपनी हैं, जो प्लेन बनाती हैं- बोइंग और एयरबस।
एक जमाने में बोइंग बहुत ही ऊंचे स्टैंडर्ड की इंजीनियरिंग कंपनी थी। एक स्क्रू भी सौ बार टेस्ट होने के बाद प्लेन में फिट होता था। लेकिन फिर उनका ध्यान यंत्र-शास्त्र से हटकर अर्थशास्त्र की तरफ टिक गया। सौ बार क्यूं, दस बार ही टेस्ट करते हैं, उसी में काम हो जाएगा।
पैसा तो बच गया, मगर जान- उसका क्या? कभी-कभार एक प्लेन क्रैश हो भी गया, तो कह देंगे, पायलट की गलती थी। सच क्या, झूठ क्या, किसे पता। खैर, अगर कोई कार होती, हम उस कंपनी से कार खरीदते ही नहीं। लेकिन जैसा मैंने कहा, प्लेन बनाने वालों की दादागिरी इतनी है कि हमें कोई चॉइस नहीं।
ये ही दादागिरी अब एयरलाइंस की भी हो गई है। जब 60% फ्लाइट्स इंडिगो की झोली में हैं तो एयरलाइन में गड़बड़ हुई, पूरा देश थम गया। शादी के वेन्यू पर सन्नाटा, बैठे हैं एट एयरपोर्ट विद पराठा। एग्जाम देने वाला सोचे, मुझे तो सब कुछ आता है। बस किसी तरह पहुंचा दो, इंडिगो महाराज। पूरा करने दो मेरा काज।
एक नव-विवाहित दम्पती अपनी ही शादी के रिसेप्शन में नहीं पहुंच पाया। उन्होंने वीडियो लिंक पर अतिथियों को दर्शन दिए। हमारे जुगाड़ूपन की तो दाद देनी होगी। वैसे भी रिसेप्शन में ज्यादातर मेहमान आते हैं एक-दूसरे से मिलने के लिए और खाना दबाने के लिए। शगुन का लिफाफा नहीं, जी-पे का इस्तेमाल करें।
सब कोस रहे हैं एयरलाइन को लेकिन दोबारा इन्हीं का टिकट लेना पड़ेगा। बस, यह सोचकर निकलो कि पहुंच गए तो पहुंच गए। साथ में मठरी-नमकीन, आलू-पूरी, बोरिया-बिस्तर लेकर निकलना। अगर वो कहें दो घंटे का डिले है तो चार लेकर चलना। सिर में दर्द हो गया तो अमृतांजन मलना।
आस-पास के लोगों से पूछो- आप कहां के रहने वाले हो? शायद आप मेरी भाभी के मामा के साले हो। वैसे हमारी सड़कें सब बकवास हैं। जमीन पर या हवा में, बदतर अहसास है। लेकिन एयरलाइंस की प्रॉब्लम सिर्फ हमारी नहीं। पूरी दुनिया में प्रॉब्लम है वही।
हर एयरलाइन घाटे में दिखती है, जबकि हजारों में टिकट बिकती है। वो अलादीन का चिराग मिल पाए, तो हम भी कालीन पर उड़ जाएं। नहीं, और भी काम हैं भगवान को। बस एक उड़न खटोले का प्रावधान हो! (ये लेखिका के अपने विचार हैं)
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रश्मि बंसल का कॉलम: और भी काम हैं भगवान को, बस एक उड़न खटोले का प्रावधान हो

