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मेघना पंत का कॉलम: स्त्री को उसके शरीर के लिए दंडित नहीं किया जा सकता Politics & News

मेघना पंत का कॉलम:  स्त्री को उसके शरीर के लिए दंडित नहीं किया जा सकता Politics & News
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4 घंटे पहले

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मेघना पंत, पुरस्कृत लेखिका, पत्रकार और वक्ता

कोयंबटूर में 13 साल की एक दलित लड़की को परीक्षा के दौरान अपनी कक्षा से बाहर बैठाया गया। उसका अपराध? वह मासिक धर्म से गुजर रही थी। यह वर्ष 2025 है! यह सब हमारे देश में अभी भी कैसे हो रहा है? इस खबर के मर्म को समझें। एक बच्ची- जो बामुश्किल एक किशोरी भर थी- को महज पीरियड्स के कारण सार्वजनिक रूप से अपमानित किया गया, शैक्षणिक रूप से दंडित किया गया और भावनात्मक रूप से आहत किया गया। और यह एक ऐसे देश में हुआ, जो चंद्रमा पर स्पेसशिप भेजता है। क्या हम अभी तक अपनी कक्षाओं में थोड़ा-सा सामान्य ज्ञान भी नहीं भेज पाए हैं?

यह सिर्फ एक घटना नहीं है। यह हमारे सामाजिक मानस में पैबस्त एक गहरी सड़ांध का प्रकटन है। जो पीरियड्स को एक प्राकृतिक जैविक प्रक्रिया के रूप में नहीं, बल्कि शर्म के प्रतीक के रूप में देखता है। एक ऐसी चीज जिसे छिपाया जाना चाहिए, जिसके बारे में दबी जुबान से बात की जानी चाहिए, जिसके लिए किसी को बहिष्कृत किया जाना चाहिए। अगर इसे जाति के साथ जोड़ दें तो बात अज्ञानता से कहीं ज्यादा हो जाती है- तब यह अन्याय और क्रूरता बन जाती है।

सच कहें तो अगर यही सब किसी महानगर के पॉश स्कूल में किसी उच्च जाति की लड़की के साथ हुआ होता, तो इस पर आक्रोश भड़क उठता, शायद कानूनी कार्रवाई भी होती। लेकिन तमिलनाडु के किसी स्कूल में एक दलित लड़की के साथ यह हो तो वह हमारी उदासीनता की बलिवेदी पर एक और देहमात्र बन जाती है। उसकी पीड़ा, उसकी अवमानना, उसके अधिकारों पर पवित्रता का एक पुरातन विचार ग्रहण लगा देता है। पवित्रता और प्रदूषण- इन दो शब्दों की मदद से ही तो सदियों से महिलाओं के जीवन को नियंत्रित किया जा रहा है।

हमें बताया जाता है कि जब हम रक्त बहाती हैं तो हम ‘अशुद्ध’ होती हैं। मंदिरों में हमें प्रवेश नहीं करने दिया जाता। रसोई में हमें अलग खड़ा कर दिया जाता है। घरों में हमारे बारे में कानाफूसी की जाती है। स्कूलों में हमें अलग-थलग कर दिया जाता है- जैसे किसी जमाने में कुष्ठरोगियों के साथ किया जाता था। यह संस्कृति नहीं है। यह “नियंत्रण’ है। और अब यह कहने का समय आ गया है कि बस, बहुत हुआ।

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पीरियड्स कोई शर्मनाक घटना नहीं हैं। वे किसी को अशुद्ध नहीं करते। वे किसी की नैतिक विफलता भी नहीं हैं। वे इस बात का सबूत हैं कि स्त्री का शरीर शक्तिशाली है। वह एक जीवन का सृजन करने में सक्षम है। लेकिन पितृसत्ता इस विचार को पसंद नहीं करती है। इसलिए यह हमारी शक्ति को चुप्पी में छिपा देती है। इसे अंधविश्वास में लपेट देती है। इसे हमें बहिष्कृत करने, अलग-थलग करने, दंडित करने के उपाय के रूप में बरतती है।

लेकिन यह वास्तव में मानवाधिकारों का उल्लंघन है। यह एक जातिवादी, लैंगिक व्यवस्था है, जो लड़कियों को उनके अस्तित्व के लिए अपमानित करती है।कोयंबटूर की उस लड़की को समर्थन, गोपनीयता, सहानुभूति दी जानी चाहिए थी। लेकिन इसके बजाय उसे कलंकित किया गया। इस कृत्य में शामिल शिक्षकों और अधिकारियों को अपने पर शर्म आनी चाहिए। क्योंकि उन्होंने न केवल एक छात्रा बल्कि लड़कियों की एक पूरी पीढ़ी को निराश किया है, जो स्कूलों को अपने लिए एक सुरक्षित स्थान के रूप में देखती हैं।

इस तरह की घटनाओं पर अपना आक्रोश केवल ट्वीट करके व्यक्त न करें। स्कूलों में “मेन्स्ट्रुअल एजुकेशन’ की मांग करें। विशेष जातियों के लिए संवेदनशीलता के प्रशिक्षण की मांग करें। मांग करें कि राष्ट्रीय शिक्षा नीति केवल समग्र शिक्षा के बारे में बात ही न करे, इसे लागू भी करे। और लोगों को लगातार यह याद दिलाते रहें कि पैड कोई बुराई नहीं हैं, पीरियड्स कोई दंड नहीं हैं, और रक्तस्राव कर रही लड़की अशुद्ध नहीं है। समस्या उसके शरीर में नहीं, उन लोगों की मानसिकता में है, जो उसे गंदा समझते हैं।

(ये लेखिका के अपने विचार हैं)

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