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- Mukesh Mathur’s Column The Issue Should Not Be Ranveer Allahabadia, But ‘Gen Z’
मुकेश माथुर दैनिक भास्कर
‘रणवीर इलाहाबादिया पर प्रतिबंध लगा दो। जिस चैनल पर उसने वाहियात बातें बोलीं, उसे बंद कर दो। अश्लीलता फैला रहे सभी चैनल ऑफ-एयर हो जाने चाहिए। ओटीटी का भी कुछ करो। इस लड़के का अपना पॉडकास्ट भी बंद करवा दो।’ मानो राष्ट्र की दशकों से सोई चेतना जाग गई है। रणवीर पर रिपोर्टें दर्ज हो गई हैं। बस, उसका किस्सा खत्म हो जाना चाहिए। समाज को चैन मिले।
हम हर घटना में एक आरोपी ढूंढ़ते हैं और उसे नेस्तनाबूद करने में जुट जाते हैं। सहूलियत का काम। जो मुश्किल काम है वो यह कि उस घटना से एक विमर्श शुरू हो। कारणों में जाएं। बदलावों को पहचानें। वे बदलाव जो ऐसी घटना को जन्म दे रहे हैं। इसके बाद…। समाज-सरकार-तंत्र जुटे। चीजें ठीक करने में। कोर्स करेक्शन में।
इलाहाबादिया को ही लीजिए। उसने जो बोला। निम्न स्तर का। आप कितने ही लिबरल हों, वह जो कह रहा है, उसे सुनकर माथे पर शिकन आएगी ही। क्या हम हजारों साल लगाकर सभ्यता की सीढ़ियां इसलिए चढ़े हैं कि अनाचार-व्यभिचार और स्वच्छंदता के कुएं में कूद जाएं? असंभव।
लेकिन इलाहाबादिया पर देश भर में एफआईआर कराने से ज्यादा जरूरी काम दूसरे हैं। इस मुद्दे पर प्रतिक्रिया आनी चाहिए थी लेकिन और गंभीरता लिए। चिंता हो जानी चाहिए थी कि जिस ‘जेन-ज़ी’ को यूट्यूबर समय रैना का यह शो रिप्रजेंट कर रहा है, उस पीढ़ी को हुआ क्या है? क्यों इस पीढ़ी को वर्जनाएं तोड़ना, वर्जित बात कहना-सुनना थ्रिल देता है?
यूं यह हमेशा से ही इंसान को थ्रिल देता आया है, लेकिन कोविड के मुश्किल दिनों में बंद कमरों में बचपन के कीमती साल स्क्रीन के साथ बिताने वाली पीढ़ी उन महीन सीमारेखाओं को ही नहीं पहचानती, जो घर-समाज में आपके बोल-चाल, हाव-भाव, व्यवहार को लेकर बनी हैं। यह पीढ़ी सारे सुख तो लेना चाहती है लेकिन जीवन में कैजुअल न होने की न्यूनतम जिम्मेदारी कंधे पर लेकर बड़ी नहीं होना चाहती।
1997 से 2012 के दरमियान पैदा हुए इन लोगों के साथ कई ऐसी चीजें जुड़ी हैं, जो इनसे पहले के मिलेनियल्स और उससे पहले की पीढ़ियों के साथ नहीं थीं। यह पहली पीढ़ी है, जिसे जन्म के बाद से ही इंटरनेट मिला है। हमने स्मार्टफोन के पहले की जिंदगी भी देखी है, बाद की भी। हमने दुनियादारी दुनिया में जाकर सीखी है, जबकि ‘जेन-ज़ी’ के लिए स्क्रीन ही दुनिया है।
जाहिर है उस तरह का व्यक्तित्व विकास, रोजमर्रा की चुनौतियों से जूझने का माद्दा पैदा हो ही नहीं पाया। कोचिंगों में बच्चों की आत्महत्या की कोई भी खबर आने पर हम कह देते हैं- माता-पिता का दबाव सबसे बड़ा कारण है। मैं कहता हूं कि नई पीढ़ी के बच्चे ही भीतर से कमजोर हैं, हल्के-से झटके से टूट जाते हैं।
इंटेलिजेंट डॉट कॉम की रिपोर्ट के अनुसार अमेरिका में केवल 25 प्रतिशत कंपनियां ही ‘जेन-ज़ी’ को नौकरी देने को तैयार हैं। 21 प्रतिशत मैनेजर कहते हैं कि इस पीढ़ी के युवा ऑफिस की चुनौतियों से निपटने के लिए तैयार नहीं हैं।
असल में इस पीढ़ी की मुख्य बात यह है कि ये जैसे हैं, वैसे ही रहना चाहते हैं। यहां तक कि ऑफिस में भी इन्हें प्रोटोकॉल फॉलो करना नहीं भाता। यह वह पीढ़ी है, जिसके पिता उसके दोस्त जैसे हैं। पिछली पीढ़ी को जो जीवन-मूल्य, सही-गलत सिखाए गए थे, वो इस पीढ़ी को उस तरह नहीं बताए जा सके हैं।
मुश्किलात कई हैं, लेकिन कई ऐसे गुण भी हैं, जो ‘जेन-ज़ी’ में खास हैं। टेक्नोलॉजी के महारथी, मल्टीटास्किंग में मंझे हुए, नेचरल या सहज रहने वाले आदि। अब इस पीढ़ी पर एक व्यापक नजर डालने और उनकी दिक्कतों को समाज कैसे संभाले, इस पर बात होनी चाहिए।
किसी कार्यक्रम, फिल्म, चैनल को बंद करना तो अतिरेक है। यह वैसे ही है, जैसे मुगल आक्रांता थे तो पाठ्यक्रम में औरंगजेब को पढ़ाना ही बंद कर दो। पढ़ेंगे नहीं तो पता कैसे चलेगा कि आक्रांता कैसे नुकसान करते थे। समाज को परिपक्व होने दीजिए।
जिस ‘जेन-ज़ी’ को समय रैना का शो रिप्रजेंट कर रहा है, उस पीढ़ी को हुआ क्या है? क्यों उसे वर्जनाएं तोड़ना, वर्जित बात कहना-सुनना थ्रिल देता है? पिछली पीढ़ी को जो जीवन-मूल्य सिखाए गए थे, इस पीढ़ी को नहीं बताए जा सके हैं। इलाहाबादिया का उदाहरण अपने आप ही बाकियों के लिए सबक बनेगा।
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मुकेश माथुर का कॉलम: मुद्दा रणवीर इलाहाबादिया नहीं, ‘जेन-ज़ी’ होना चाहिए