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पवन के. वर्मा का कॉलम: हम लोगों के बीच पैदा हुई दीवारें तोड़ने में अक्षम क्यों? ​​​​​​​ Politics & News

पवन के. वर्मा का कॉलम:  हम लोगों के बीच पैदा हुई दीवारें तोड़ने में अक्षम क्यों? ​​​​​​​ Politics & News

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28 मिनट पहले

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पवन के. वर्मा पूर्व राज्यसभा सांसद व राजनयिक

बिहार में चुनाव सिर पर होने के चलते इस साल मुहर्रम पर साम्प्रदायिक हिंसा की आशंका पहले से थी। वास्तव में, आजकल खुशियों से भरे हर त्योहार पर कलह और कटुता का डर बना रहता है। इतिहासकार विल ड्यूरेंट के अनुसार भारत पर 12वीं सदी में जो तुर्कों का आक्रमण हुआ था, वो विश्व-इतिहास के सबसे रक्तरंजित अध्यायों में से है। इसमें हिंदू मंदिरों को तोड़ा गया, धर्मांतरण और लूटपाटें हुईं।

इतिहास के तथ्यों को तो झुठलाया नहीं जा सकता। लेकिन सदियों से भारत में एक गंगा-जमुनी संस्कृति भी विकसित हुई है, जिसमें यदि बंटवारे और साम्प्रदायिक सौहार्द बिगड़ने से हुई हिंसा के कुछ मौकों को छोड़ दें तो हिंदू और मुसलमान एक-दूसरे के साथ सह-अस्तित्व की भावना के साथ रहना सीखे हैं। उनके बीच पारस्परिक निर्भरता और सौहार्द का संबंध विकसित हुआ है।

क्या लोग यह जानते हैं कि ओडिशा के रेमांडा गांव का एक मुस्लिम परिवार हिंदुओं के वार्षिक रथयात्रा महोत्सव की अनुवाई करता है? क्या उन्हें मालूम है कि अंतिम मुगल बादशाह बहादुर शाह जफर फूलवालों की सैर के दौरान दिल्ली के महरौली में सूफी संत ख्वाजा बख्तियार काकी की मजार से पहले जोगमाया मंदिर जाया करते थे? या यह कि केरल में सबरीमलै पहाड़ियों पर स्थित अय्यप्पा मंदिर की चढ़ाई करने वाले लाखों हिंदू श्रद्धालुओं के लिए रास्ते में पड़ने वाली एक मुस्लिम संत की दरगाह भी एक पवित्र स्थान है?

लखनऊ में हिंदू व्यापारियों के चिकन/जरदोजी उद्योगों में बड़ी संख्या में मुसलमान काम करते हैं। सीतापुर और मिर्जापुर के मुनाफे वाले कालीन कारोबार में हिंदू और मुस्लिम दोनों साझेदार हैं। वाराणसी में मुसलमान लाजवाब बनारसी साड़ी बुनते हैं और हिंदू इस व्यापार में पैसा लगाते हैं।

महाराष्ट्र में कई मुस्लिम शिल्पकार गणेश प्रतिमाएं बनाते हैं। केरल के त्रिशूर में वडक्कुन्नाथन मंदिर के पूरम उत्सव के दौरान मुसलमान और ईसाई मदद करते हैं। बंगाल में भी दुर्गा पूजा के दौरान मुस्लिम कलाकार पंडाल और मूर्तियां बनाते हैं।

मुझे याद है कि बचपन में कैसे हिंदू और मुसलमान एक-दूसरे के त्योहारों में खुशी-खुशी शरीक होते थे। होली पर मुस्लिम परिवार गुझिया और ठंडाई बनाते थे और उनके पड़ोसी हिंदू ईद पर सेवइयों और बिरयानी का लुत्फ उठाते थे। बंगाल और बिहार के कुछ हिस्सों में हिंदू कलाकार मुहर्रम के लिए ताजिये बनाते हैं।

बिहार में पटना से 100 किलोमीटर के दायरे में भारत के प्रमुख धर्मों के कुछ सबसे महत्वपूर्ण स्थल मौजूद हैं, जैसे जैनों के लिए पावापुरी, बौद्धों के लिए बोधगया और हिंदुओं के लिए गया, मुसलमानों के लिए बिहार शरीफ और सिखों के लिए गुरु गोविंद सिंह की जन्मस्थली पटना साहिब भी वहीं है।

राजनेता धर्म-आधारित वोटबैंक को बढ़ाने के लिए भारत के आम लोगों को कठपुतली की तरह काम लेते हैं। इसका नतीजा तो जनता भुगतती है, लेकिन नेता इससे फलते-फूलते हैं। स्वयंभू धर्म-प्रचारकों- जिनमें हिंदू और मुस्लिम दोनों सम्मिलित हैं- को साम्प्रदायिक नफरत फैलाने के लिए उपयोग किया जाता है।

ऐसे हिंदुओं के लिए ही आठवीं शताब्दी में आदि शंकराचार्य ने दो टूक शब्दों में कहा था- ‘जटिलो मुण्डी लुञ्छितकेशः, काषायाम्बर बहुकृतवेषः। पश्यन्नपि च न पश्यति मूढः, उदरनिमित्तं बहुकृतवेषः।’ अर्थात्, बहुत-से लोग अपनी जटाएं गुंथते हैं, सिर मुंडवाते हैं, गेरुए वस्त्र पहनते हैं, लेकिन वे यह सब वह सिर्फ अपने पेट के लिए यानी निजी स्वार्थवश करते हैं।

वहीं 15वीं सदी में कबीर ने कहा था- ‘पूरबि दिसा हरि का बासा, पछिम अलह मुकामा। दिल ही खोज दिलै भीतर, इहां राम रहिमांना।’ 18वीं सदी में उर्दू के दिग्ग्ज शायर मीर तकी मीर ने भी घोषणा की थी- ‘मीर के दीन-ओ-मजहब को अब पूछते क्या हो उन ने तो, कश्का खेंचा दैर में बैठा कब का तर्क इस्लाम किया।’

18वीं शताब्दी में शायर मिर्जा गालिब ने भी संकीर्ण मानसिकता वाले मौलवियों का यह कहकर मखौल उड़ाया था- ‘कहां मैखाने का दरवाजा गालिब और कहां वाइज, बस इतना जानते हैं कल वो जाता था जब हम निकले।’

हमारे देश को क्या हो गया है, जो विश्वगुरु तो बनना चाहता है, लेकिन अपने ही लोगों के बीच पैदा हुई कट्टरता की दीवारें तोड़ने में अक्षम है? भारतवासियों को उन्हें धर्म के आधार पर बांटने वाले राजनेताओं से वही कहना चाहिए, जो साहिर लुधियानवी ने 1959 की फिल्म ‘धूल का फूल’ में कहा था- ‘तू हिंदू बनेगा ना मुसलमान बनेगा, इंसान की औलाद है, इंसान बनेगा।’

राजनेता अपने धर्म-आधारित वोटबैंक को बढ़ाने के लिए भारत के आम लोगों को कठपुतली की तरह काम लेते हैं। इसका नतीजा तो जनता भुगतती है, लेकिन नेता इससे फलते-फूलते हैं। हमारे देश को आखिर क्या हो गया है? (ये लेखक के अपने विचार हैं)

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