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- Pawan K. Verma’s Column Questions Raised On The Loyalty Of Constitutional Posts Are A Matter Of Concern
पवन के. वर्मा पूर्व राज्यसभा सांसद व राजनयिक
अब जब हम नए उपराष्ट्रपति के नामांकन की प्रतीक्षा कर रहे हैं, तो पूर्व उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़ द्वारा 21 जुलाई को- मानसून सत्र के ऐन पहले- रहस्यमयी तरीके से दिया गया इस्तीफा मानो भुला-सा दिया गया है। कुछ लोगों का कहना है धनखड़ अभी कहां हैं, इस बारे में भी ज्यादा लोगों को खबर नहीं है।
स्वतंत्र भारत में पहली बार ऐसा हुआ था, जब किसी पदासीन उपराष्ट्रपति द्वारा पद से इस्तीफा दिया गया हो। यह कोई मामूली बात नहीं है। इससे पहले जिन उपराष्ट्रपतियों ने पद पर रहते हुए त्यागपत्र दिया, वो सिर्फ इसलिए था, क्योंकि वे राष्ट्रपति चुनाव के उम्मीदवार थे।
देर रात अचानक दिए अपने त्यागपत्र में धनखड़ ने स्वास्थ्य कारणों का हवाला दिया था। शायद, यह सच हो सकता है। लेकिन सार्वजनिक रूप से ज्ञात तथ्य यह तो नहीं दर्शाते कि वे गम्भीर रूप से अस्वस्थ थे। उनकी हाल ही में एंजियोप्लास्टी जरूर हुई थी, किंतु वह एक सामान्य प्रक्रिया थी, और प्राणघातक नहीं थी। 74 की उम्र भी इतनी नहीं होती। इसके अलावा, इस बात का भी कोई प्रमाण नहीं है कि इस्तीफे के बाद उन्हें अस्पताल में भर्ती कराया गया हो।
वास्तव में, जिस दिन उन्होंने इस्तीफा दिया, उस दिन भी वे अस्वस्थ नहीं दिखे, बल्कि पूरी तरह सक्रिय रहे थे। राज्यसभा के सभापति के तौर पर उन्होंने दोपहर 12:30 बजे बिजनेस एडवाइजरी कमेटी (बीएसी) की बैठक तय की, जिसमें विपक्ष और भाजपा के नेताओं ने हिस्सा लिया।
उनका प्रतिनिधित्व सदन के नेता जेपी नड्डा और संसदीय कार्य मंत्री किरेन रिजिजू कर रहे थे। बैठक में शामिल किसी भी व्यक्ति ने यह संकेत नहीं दिया कि धनखड़ बीमार लग रहे थे, या अपनी सामान्य ऊर्जा से कम थे।
बैठक बेनतीजा रही और शाम 4:30 बजे फिर से शुरू होने वाली थी। लेकिन जब बैठक फिर से शुरू हुई, तो इस बार उसमें एक बड़ा अंतर था। नड्डा और रिजिजू इसमें शामिल नहीं हुए। उसी शाम धनखड़ ने इस्तीफा दे दिया।
स्पष्ट है कि अचानक हुए इस घटनाक्रम के पीछे सिर्फ स्वास्थ्य संबंधी ही नहीं, और भी कारण रहे होंगे। खासकर इसलिए क्योंकि धनखड़ के कार्यालय ने अगले हफ्ते उनकी सार्वजनिक व्यस्तताओं की घोषणा कर दी थी। फिर देश के दूसरे सबसे बड़े संवैधानिक पद पर बैठे व्यक्ति द्वारा अचानक ऐसा निर्णय लेने की क्या वजह थी? उनके कार्यकाल में दो वर्ष भी शेष थे।
इतना तो निश्चित है कि अपने कार्यकाल के दौरान धनखड़ ऐसे उपराष्ट्रपति रहे थे, जिन्होंने यथासम्भव सत्ताधारी दल की अपेक्षाओं का पालन किया, भले ही वे ऐसा करने के लिए बाध्य न रहे हों। इससे पहले, पश्चिम बंगाल के राज्यपाल के रूप में भी वे मुख्यमंत्री ममता बनर्जी के साथ लगातार टकराव की स्थिति में रहे थे। उनकी यह बात सराही गई होगी।
शायद पार्टी की अपेक्षाओं के अनुरूप कार्य करने की उनकी जुझारू भूमिका के लिए ही उन्हें उपराष्ट्रपति पद से पुरस्कृत किया गया हो। हालांकि ऐसा उनकी योग्यता के आधार पर भी हो सकता था, क्योंकि वे संविधान के अच्छे जानकार और एक प्रतिष्ठित वकील थे।
राज्यसभा के सभापति के रूप में, सत्ता पक्ष के प्रति उनके झुकाव के चलते ही विपक्ष ने उनके खिलाफ महाभियोग प्रस्ताव प्रस्तुत किया था। यह भी हमारे संसदीय इतिहास में पहली बार होने वाली घटना थी। उन्होंने विपक्षी सदस्यों को निष्कासित किया था और सदन में संघ की भी प्रशंसा की थी। फिर ऐसा क्या हुआ कि त्यागपत्र देने की नौबत आई?
ऐसी अटकलें हैं कि जब उन्होंने इलाहाबाद उच्च न्यायालय के न्यायमूर्ति शेखर यादव- जिन्होंने कथित तौर पर अशोभनीय साम्प्रदायिक बयान दिए थे- के खिलाफ विपक्ष के महाभियोग प्रस्ताव को स्वीकार किया तो यह बात पार्टी नेतृत्व को पसंद नहीं आई।
यह भी कहा जा रहा है कि उनकी “गलती’ न्यायमूर्ति यशवंत वर्मा के खिलाफ विपक्ष के महाभियोग प्रस्ताव को स्वीकार करना था, जिसका श्रेय भाजपा लेना चाहती थी। या फिर यह कि संसदीय सर्वोच्चता बनाम न्यायपालिका के मामले पर उनका तीखा रुख सरकार को एक असहज स्थति में डाल देने वाला था। जो भी हो, यह तो साफ है कि उन्होंने कुछ ऐसा किया, जिससे उन्हें पूर्व में उन्हें उपकृत करने वाली पार्टी का ही कोपभाजन बनना पड़ा।
पर इस सबमें वास्तविक चिंताजनक मुद्दा एक गैर-राजनीतिक संवैधानिक पद की निष्ठा का है। अगर ऐसे किसी पद पर आसीन व्यक्ति तभी पदाधिकारी रह सकता है, जब वह गैर-राजनीतिक होने की अपनी शपथ का निर्वाह न करे तो स्वतंत्र संस्थाओं का नेतृत्व करने वाले दूसरे लोगों का क्या? और हमारे लोकतंत्र के लिए इसके क्या मायने हैं?
पूर्व उपराष्ट्रपति वाले मामले में मुद्दा संवैधानिक पद की निष्ठा का है। अगर ऐसे किसी पद पर आसीन व्यक्ति तभी पदाधिकारी रह सकता है, जब वह गैर-राजनीतिक न रह पाए तो स्वतंत्र संस्थाओं का नेतृत्व करने वालों का क्या?
(ये लेखक के अपने विचार हैं)
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पवन के. वर्मा का कॉलम: संवैधानिक पदों की निष्ठाओं पर उठते सवाल चिंतनीय हैं