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- Pawan K. Verma’s Column Neighbouring Countries Cannot Ignore Us And Neither Can We Ignore Them
पवन के. वर्मा पूर्व राज्यसभा सांसद व राजनयिक
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की ‘नेबर-फर्स्ट’ नीति का कोई भी मूल्यांकन समग्र होना चाहिए, टुकड़ों में नहीं। भारत सात देशों से सीमाएं साझा करता है : बांग्लादेश (4096 किमी), चीन (3485 किमी), पाकिस्तान (3310 किमी), नेपाल (1752 किमी), म्यांमार (1643 किमी), भूटान (578 किमी) और अफगानिस्तान-पीओके (106 किमी)।
पाकिस्तान-चीन से सीमा-विवाद है, जो सैन्य-टकरावों का कारण बनता रहा है। बांग्लादेश से अवैध शरणार्थी आते रहते हैं, म्यांमार से ड्रग्स-हथियारों की तस्करी होती है और नेपाल हमारे सीमांकन पर जवाबी दावे करने लगा है।
हमारे कई क्षेत्रीय पड़ोसी राजनीतिक रूप से अस्थिर हैं। पाकिस्तान- जहां फौज और आईएसआई ही वास्तविक सरकार हैं- वर्तमान में हिंसक आंदोलनों की चपेट में है, क्योंकि जेल में बंद इमरान खान के समर्थक चुनावी धांधली के बाद उनकी रिहाई की मांग कर रहे हैं।
शेख हसीना सरकार के पतन के बाद बांग्लादेश में उथल-पुथल है, कट्टरवाद बढ़ रहा है। नेपाल में, कम्युनिस्ट पार्टी के नेतृत्व वाली गठबंधन सरकारें लगातार अस्थिर हैं। दमनकारी सैन्य-सत्ता द्वारा शासित म्यांमार से रोहिंग्या शरणार्थी भारत चले आते हैं।
इसके अलावा भारत के पास 7000 किमी से ज्यादा लंबी समुद्री तटरेखा भी है। हम श्रीलंका और मालदीव से समुद्री सीमा साझा करते हैं और अंडमान-निकोबार में थाईलैंड, इंडोनेशिया और म्यांमार से। श्रीलंका में, वामपंथी अनुरा दिसानायके के नेतृत्व वाली नई सरकार ने हाल ही में चुनाव जीता है। मालदीव में, खुले तौर पर चीन समर्थक राष्ट्रपति मोहम्मद मुइज्जू सत्ता में हैं।
क्षेत्र में चीन की दखलंदाजी अतिरिक्त समस्याएं पैदा करती है। पाकिस्तान उसका कट्टर सहयोगी है। नेपाल में भी, कम्युनिस्ट पार्टियों और आर्थिक प्रोत्साहनों के जरिए चीनी प्रभाव तेजी से बढ़ा है। चीन श्रीलंका का सबसे बड़ा कर्जदार है। रणनीतिक-महत्व के हम्बनटोटा बंदरगाह सहित कई बड़ी बुनियादी ढांचा परियोजनाओं में चीन ने पैसा लगाया है।
क्षेत्र का सबसे बड़ा और सबसे शक्तिशाली देश होने के नाते भारत के पड़ोसी उसके बिना अपना काम नहीं चला सकते, लेकिन उसके कई पड़ोसियों को संदेह है कि भारत अपने ऐतिहासिक, सांस्कृतिक और जातीय-संबंधों का इस्तेमाल उनके आंतरिक मामलों में हस्तक्षेप करने के लिए करता है।
कभी-कभी उनके द्वारा भी हमारे सक्रिय-हस्तक्षेप की मांग की जाती है, जैसे कि बांग्लादेश-निर्माण (1971), तमिल संघर्ष को हल करने के लिए श्रीलंका में भारतीय शांति सेना की भागीदारी (1987-90) और मालदीव के राष्ट्रपति गयूम के खिलाफ तख्तापलट को दबाने में मदद (1988)। इसके बावजूद, श्रीलंका, बांग्लादेश और नेपाल किसी भी भारतीय-हस्तक्षेप के प्रति संवेदनशील बने हुए हैं और अक्सर भारत विरोधी भावनाएं उनकी आंतरिक राजनीति के लिए ईंधन का काम करती हैं।
कभी-कभी हमारी विदेश-नीति में सूक्ष्मता और शिष्टता का अभाव दिखाई देता है। इसका एक उदाहरण पहले प्रधानमंत्री राजीव गांधी की सरकार (1989) और फिर 2015 में प्रधानमंत्री मोदी के शासन के दौरान नेपाल के साथ सीमा की नाकेबंदी है।
मैंने 2015 में राज्यसभा में इसके प्रतिकूल राजनीतिक और मानवीय परिणामों पर चर्चा शुरू की थी, क्योंकि यह कदम नेपाल में चीन-समर्थक और भारत-विरोधी भावनाओं को बढ़ाने वाला था। जबकि हमारी प्राथमिकता हमेशा विश्वास का निर्माण करने की होनी चाहिए। यहां तक कि आर्थिक सहायता प्रदान करते समय भी हमें ‘बड़े भाई’ की तरह व्यवहार नहीं करना चाहिए।
दूसरे, हमें चीन की निरंतर चालों के प्रति असाधारण रूप से सतर्क रहना होगा, अपनी खुफिया क्षमताओं को उन्नत करना होगा और नए और इनोवेटिव तरीकों से अपने सदियों पुराने संबंधों को मजबूत करना होगा। इसका एक अच्छा उदाहरण भूटान की 10,000 मेगावाट की पन-बिजली परियोजनाओं के निर्माण में हमारी सहायता है। इससे हमें बिजली और भूटान को राजस्व मिलता है; यह दोनों देशों के हित में है।
तीसरे, हमें इन देशों में राजनीतिक स्पेक्ट्रम के सभी पक्षों के साथ संवाद करने के रास्ते बनाए रखने चाहिए। बांग्लादेश में, हमने शेख हसीना की भारत-समर्थक लेकिन तानाशाहीपूर्ण हुकूमत को भरपूर समर्थन दिया था और अब हमें इसके परिणाम भुगतने होंगे। चौथे, हमें पाकिस्तान और चीन का मुकाबला करने के लिए अपनी सैन्य-शक्ति को मजबूत करना जारी रखना होगा। क्षेत्र में भारतीय-नेतृत्व के लिए उसका सैन्य रूप से मजबूत होना आवश्यक है।
पड़ोस में, भारत की कूटनीति को धैर्य, परिपक्वता और दीर्घकालिक दृष्टि दिखानी चाहिए। हमें इन देशों में सभी राजनीतिक पक्षों से संवाद बनाए रखना होगा, तो दूसरी तरफ अपनी सैन्य-शक्ति को मजबूत करना भी जरूरी है।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)
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