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- Pawan K. Verma’s Column: How Can We Get Rid Of The Politics Of Money And Muscle Power?
पवन के. वर्मा पूर्व राज्यसभा सांसद व राजनयिक
हम भले ही दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र हों, लेकिन हमारे यहां राजनीति में अपराधियों की संख्या भी सबसे ज्यादा है। दमखम और जनादेश के इस गठजोड़ का कारण एक सिस्टम है। इस सिस्टम का आधार क्या है?
पहला, अच्छी तरह से कार्यशील संस्थाओं के अभाव में ताकत, पैसा और प्रभाव रखने वाला कोई अपराधी भी सुरक्षा पाने और अपने बेईमानी भरे साम्राज्य को फैलाने के लिए राजनीतिक वैधता तलाशता है। दूसरा, दलों को चुनावी मुकाबलों और प्रचार के लिए भारी पैसा चाहिए।
ऐसे में वे ‘साफ-सुथरे’ के बजाय ‘जिताऊ’ उम्मीदवार चुनने में नहीं हिचकते। तीसरा, सिस्टम की विफलता के कारण वोटर भी अकसर ऐसे दबंगों को न केवल बर्दाश्त करते हैं, बल्कि उन्हें जनादेश से पुरस्कृत भी करते हैं।
जो व्यक्ति स्थानीय पुलिस, न्याय-तंत्र, विकास कार्यों के ठेके नियंत्रित करता है, संरक्षण देने में सक्षम होता है, हफ्ता वसूलता है और अपने मातहतों को मनमाने मुनाफे दे सकता है, वो जनता को अकसर किसी ईमानदार प्रतिनिधि से अधिक प्रभावशाली लगता है।
ऐसे में ‘दबंग’ नेता सिर्फ खलनायक ही नहीं होता, बल्कि विकल्पों के अकाल वाले सिस्टम में किसी आधुनिक रॉबिनहुड जैसी भूमिका निभाता है। एक चौथा कारण भी है, कानूनी और संस्थागत कमियां। सुस्त अदालतें, कमजोर मुकदमे, आसानी से मिल जाने वाली जमानतें, पुलिस पर राजनीतिक दबाव और जवाबदेही की कमी इस सांठगांठ को बनाए रखती है। यही सिस्टम राजनीति का अपराधीकरण करता है।
बाहुबलियों की मिसालें तो यत्र-तत्र-सर्वत्र हैं। बिहार में जेडीयू ने मोकामा से अनंत सिंह को उम्मीदवार बनाया, जो हाल ही हत्या के मामले में गिरफ्तार हुए हैं। कुख्यात हिस्ट्रीशीटर होने के बावजूद उन्हें टिकट दिया गया।
उनके सामने सूरजभान सिंह की पत्नी हैं, जो हत्या के मामले में उम्रकैद काट रहे हैं। बीमारी के बावजूद खुद लालू प्रसाद जिसके लिए प्रचार पर निकले, वो रीतलाल यादव भी जाने-पहचाने दबंग हैं। अन्य चर्चित अपराधी नेताओं में मुन्ना शुक्ला, प्रदीप महतो और आनंद मोहन शामिल हैं।
आनंद तो गोपालगंज के डीएम जी. कृष्णैया की हत्या का दुस्साहस तक कर चुके हैं। यूपी में माफिया मुख्तार अंसारी पर भी दर्जनों गंभीर मुकदमे दर्ज थे, लेकिन वे कई बार विधायक चुने गए। एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स (एडीआर) के अनुसार लगभग 40% सांसदों ने खुद पर आपराधिक मामले होने की घोषणा की। इनमें से 25% मुकदमे हत्या, अपहरण, महिलाओं के प्रति अपराधों के हैं।
लोकतंत्र से यह कालिख मिटाने के लिए क्या किया जा सकता है? कानून को सुनिश्चित करना होगा कि अगर किसी उम्मीदवार के खिलाफ गंभीर आपराधिक मामले में आरोप तय हो जाएं तो उसे चुनाव लड़ने से अयोग्य घोषित किया जाए।
मुकदमों की जल्द सुनवाई और दोषसिद्धि जरूरी है, लेकिन तब तक उम्मीदवारी के मानदंड ऊंचे होने चाहिए। गंभीर आरोपों वाले लोगों को टिकट नहीं दिया जाए। चुनाव प्रचार की फंडिंग में भी पारदर्शिता और सीमा जरूरी है। अपराधी राजनीति में इसलिए भी आते हैं कि वे बेनामी सम्पत्ति बना लेंगे।
इसके अलावा, राजनीतिक अपराधों के लिए स्वतंत्र अभियोजन और फास्ट ट्रैक अदालतें जरूरी हैं। नागरिक संगठनों और मीडिया को जवाबदेही की मांग करनी चाहिए। मतदाताओं को भी समझना होगा कि बाहुबली भले कुछ समय का संरक्षण दे दें, लेकिन वे कानून और विकास, दोनों को कमजोर करेंगे। बेदाग उम्मीदवारों के लिए मतदाता जागरूकता जरूरी है।
अंतत:, चूंकि राजनीति का अपराधीकरण सामाजिक विषमता, जातिगत गोलबंदी, गरीबी और कमजोर संस्थाओं के आधार पर ही फलता-फूलता है, इसलिए समावेशी विकास और भरोसेमंद शासन ही धनबल और बाहुबल की सियासत को कमजोर कर सकता है।
जब तक यह नहीं होता, अपराधी सफेद कुर्ते में अपने लिए आश्रय तलाशते रहेंगे। यह ऐसा दुष्चक्र है, जिसमें दल उम्मीदवार चुनते हैं, वोटर उन्हें निर्वाचित करते हैं, कानून लागू करने वाले उन्हें खुला घूमने देते हैं और समाज उन्हें बर्दाश्त करता रहता है। तब वसूली, अवैध फंडिंग, तस्करी, जमीन पर कब्जे और खनन माफिया- सब वैध हो जाते हैं। भारत ऐसा लोकतंत्र नहीं हो सकता है!
सिर्फ वोटर ही आज देश में अधिक नैतिकता भरा लोकतंत्र सुनिश्चित कर सकते हैं। उन्हें एक स्वर में कहना चाहिए- बस, बहुत हुआ, हम बाहुबलियों और अपराधियों को वोट नहीं देंगे। देश आज इसी क्रांति का इंतजार कर रहा है। (ये लेखक के अपने विचार हैं)
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