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पवन के. वर्मा का कॉलम: एक लोकतंत्र में जनता को विश्वास में लेना जरूरी है Politics & News

पवन के. वर्मा का कॉलम:  एक लोकतंत्र में जनता को विश्वास में लेना जरूरी है Politics & News

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2 घंटे पहले

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पवन के. वर्मा पूर्व राज्यसभा सांसद व राजनयिक

अक्टूबर 1962 में चीन ने भारत के खिलाफ युद्ध छेड़ दिया था। सरकार ने राष्ट्रीय आपातकाल घोषित किया। उस समय संसद में सबसे छोटी पार्टियों में से एक जनसंघ से पहली बार राज्यसभा सांसद बने 36 वर्षीय एक युवा नेता ने प्रधानमंत्री नेहरू से संसद का विशेष सत्र बुलाने का अनुरोध किया। उनका नाम अटल बिहारी वाजपेयी था।

पं. जवाहरलाल नेहरू की कांग्रेस सरकार को उस समय लोकसभा में दो-तिहाई बहुमत प्राप्त था। 72 वर्ष के नेहरू वाजपेयी से ठीक दोगुनी आयु के भी थे। लेकिन नेहरू ने उनके अनुरोध पर सहमति जताई और अपनी ही पार्टी के सदस्यों के इस सुझाव को खारिज कर दिया कि यह एक ‘गुप्त सत्र’ होना चाहिए। जब ​​संसद की बैठक हुई, तो वाजपेयी ने सरकार पर तीखा हमला किया। लेकिन नेहरू ने इसे देशभक्ति के खिलाफ नहीं माना।

इतिहास को हमारे लिए मार्गदर्शक की भूमिका निभानी चाहिए। जब ऑपरेशन सिंदूर चल रहा था, तो भारत के लोग सरकार के साथ एकजुट थे और हमारे बहादुर सशस्त्र बलों का पूरा समर्थन किया गया, जिन्होंने सफलतापूर्वक लड़ने के लिए अपनी जान की बाजी लगा दी।

हालांकि, अब जब युद्ध विराम हो गया है, तो ऑपरेशन से संबंधित किसी वैध सवाल को यह कहकर नहीं टाला जा सकता कि यह राष्ट्र-विरोधी है। लोकतंत्र में सरकार को राष्ट्रीय हित की सीमाओं के भीतर लोगों को विश्वास में लेना चाहिए और किसी सवाल को टालना नहीं चाहिए। खास तौर पर, इसको लेकर बहुत प्रासंगिक सवाल उठ रहे हैं कि युद्ध को अचानक क्यों समाप्त कर दिया गया।

युद्ध में हमने कितने विमान खोए या नहीं खोए, इसका सटीक विवरण महत्वपूर्ण नहीं है। क्योंकि किसी भी युद्ध में दोनों पक्षों को कुछ ना कुछ नुकसान तो होगा ही, और हमारी सरकार ने पाकिस्तान में महत्वपूर्ण प्रतिष्ठानों को हुए नुकसान के पर्याप्त विजुअल प्रमाण भी उपलब्ध कराए हैं। लेकिन अब सार्वजनिक वृत्त में इस बात पर कुछ गंभीर विरोधाभास सामने आए हैं कि युद्ध विराम कैसे और क्यों हुआ।

अमेरिकी वाणिज्य मंत्री हॉवर्ड लुटनिक ने 23 मई को अमेरिकी अंतरराष्ट्रीय व्यापार न्यायालय में शपथ लेकर कहा कि भारत और पाकिस्तान के बीच युद्ध विराम ‘केवल तभी संभव हो सका’ जब ट्रम्प ने उसमें हस्तक्षेप किया और ‘एक फुल-स्केल परमाणु युद्ध को टालने’ के लिए दोनों देशों को व्यापार-पहुंच की पेशकश की।

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हालांकि इससे पहले 13 मई को भारतीय विदेश मंत्रालय के आधिकारिक प्रवक्ता रणधीर जायसवाल ने सार्वजनिक तौर पर इसके ठीक उलट बात कही थी। अपनी प्रेस ब्रीफिंग में उन्होंने कहा कि 7 से 10 मई के बीच भारतीय और अमेरिकी नेताओं के बीच केवल ‘बातचीत’ हुई थी और ‘व्यापार के मुद्दों पर कोई चर्चा नहीं हुई थी।’ जायसवाल ने आगे कहा कि युद्ध विराम भारत और पाकिस्तान के बीच ‘सीधे संपर्क’ के जरिए हुआ था, ‘अमेरिकी मध्यस्थता के जरिए नहीं’।

पाठक इस बात से सहमत होंगे कि अमेरिका के सबसे वरिष्ठ मंत्रियों में से एक के द्वारा न्यायालय में शपथ लेकर कही गई बात और हमारे आधिकारिक प्रवक्ता द्वारा प्रेस वार्ता में दिया गया बयान- दोनों एक-दूसरे के बिल्कुल विपरीत हैं।

भारतीय जनता इन विपरीत रुखों को कैसे समझे? यह भी रहस्य बना हुआ है कि राष्ट्रपति ट्रम्प युद्ध विराम की घोषणा कैसे कर सकते हैं, जबकि हमारे आधिकारिक प्रवक्ता ने सार्वजनिक रूप से कहा है कि भारत और पाकिस्तान के बीच युद्ध विराम ‘प्रत्यक्ष संपर्क’ के माध्यम से हुआ है। फिर इस मामले में अमेरिका की क्या भूमिका थी?

युद्ध कब छेड़ा जाए और युद्ध को समाप्त करने का सबसे अच्छा समय कौन-सा है- इसको लेकर हमें निर्वाचित सरकार पर भरोसा करना चाहिए। लेकिन सरकार को भी और अधिक पारदर्शी होना चाहिए। ऐसा कहना ‘पाकिस्तानी एजेंट’ होना नहीं है।

अगर सार्वजनिक क्षेत्र में सूचना पर तथ्यात्मक स्पष्टीकरण का प्रावधान है, तो जनता को इसे पूछने का अधिकार है। चुनावी लाभ के लिए तिरंगा यात्रा निकालना इसका उत्तर नहीं है। युद्ध का पक्षपातपूर्ण राजनीतिकरण भले राजनीति के लिए आकर्षक हो, लेकिन इसमें कुछ सतहीपन और अवसरवादिता की झलक मिलती है।

लोकतंत्र में परिपक्व-संवाद उसकी मजबूती का प्रतीक है, कमजोरी का नहीं। युद्ध विराम का अमेरिकी संस्करण हमारे संस्करण से अलग क्यों है- सरकार को इसे स्पष्ट करना चाहिए, या तो संसद के विशेष सत्र के माध्यम से या सर्वदलीय ब्रीफिंग के जरिए। अतीत में नेहरू और वाजपेयी द्वारा स्थापित ऐतिहासिक उदाहरण को हमें नहीं भूलना चाहिए।

अब जब युद्ध विराम हो गया है, तो ऑपरेशन ​​सिंदूर से संबंधित किसी वैध सवाल को यह कहकर नहीं टाला जा सकता कि यह राष्ट्र-विरोधी है। सरकार को राष्ट्रीय हित की सीमाओं के भीतर लोगों को विश्वास में लेना चाहिए। (ये लेखक के अपने विचार हैं।)

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