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- Neeraj Kaushal’s Column In A Situation Of ‘trade War’, No Side Is A Winner
नीरज कौशल, कोलंबिया यूनिवर्सिटी में प्रोफेसर
अमेरिका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प का मानना है कि टैरिफ से व्यापार घाटा कम होता है, लेकिन अर्थशास्त्री ऐसा नहीं सोचते। ट्रम्प ने 2017 में अपने पहले कार्यकाल की शुरुआत 479 अरब डॉलर के अमेरिकी व्यापार घाटे से की थी और अनेक टैरिफों के बावजूद जब वे पद से हटे तो यह घाटा 643 अरब डॉलर तक पहुंच चुका था।
ट्रम्प ने वादा किया था कि नए टैरिफों से चीन के साथ व्यापार घाटा 200 अरब डॉलर कम होगा, लेकिन चार राउंड के टैरिफ और आठ साल के बाद भी यह लक्ष्य पूरा नहीं हुआ है। क्या विदेशी सामानों पर टैरिफ लगाने से विदेशों में संचालित हो रही अमेरिकी मैन्युफैक्चरिंग कम्पनियों को फिर से अमेरिका में कारोबार करने की प्रेरणा मिलेगी? ट्रम्प को लगता था कि ऐसा होगा, लेकिन अमेरिकी कम्पनियों को नहीं।
2018 में चीन पर टैरिफ लगाने के बाद ट्रम्प ने उम्मीद की थी कि अमेरिकी मैन्युफैक्चरर्स चीन से लौट आएंगे। लेकिन वे वियतनाम जैसे अन्य एशियाई देशों में चले गए, जो टैरिफ का सामना नहीं कर रहे थे। ट्रम्प के टैरिफ से बचने के लिए अनेक चीनी मैन्युफैक्चरर्स भी चीन के बाहर प्रोडक्शन करने लगे। चीन के साथ व्यापार घाटा थोड़ा कम तो हुआ, लेकिन बाकी दुनिया के साथ तेजी से बढ़ गया।
टैरिफ से नौकरियां बढ़ाने का ट्रम्प का दावा भी आखिरकार गलत ही साबित हुआ। ट्रम्प के पहले कार्यकाल से मिले सबूत भी यही बताते हैं। मार्च 2018 में अधिकतर देशों से स्टील आयात पर 25% टैरिफ लगाया गया था। इन टैरिफ के कारण पहले साल में 6000 नई नौकरियां सृजित हुईं, लेकिन 2019 में स्टील की मांग घट गईं और इस उद्योग में जो नौकरियां बढ़ी थीं, वो धीरे-धीरे खत्म हो गईं।
चूंकि अधिक लोग स्टील का उपयोग करने वाले सेक्टरों में काम करते हैं, बनिस्बत उनके जो स्टील का उत्पादन करते हों, इसलिए रोजगारों पर स्टील टैरिफ का असर भी अंतत: नकारात्मक ही रहा। यूएस फेडरल रिजर्व बोर्ड के अनुसार, स्टील टैरिफ के चलते 75,000 अमेरिकी मैन्युफैक्चरिंग नौकरियों का नुकसान हुआ।
ट्रम्प के सलाहकारों का कहना है कि वे टैरिफ का डर दिखाकर अमेरिका के व्यापारिक साझेदारों से सौदे करने की कोशिश कर रहे हैं, जिससे अमेरिकियों को ही लाभ होगा। लेकिन क्या ये डील कारगर रहीं? एक बार फिर, सबूत बहुत उत्साहजनक नहीं हैं।
अपने पहले कार्यकाल में ट्रम्प चीन के साथ एक आक्रामक ट्रेड-वॉर में उलझे हुए थे, जिसमें दोनों तरफ से धमकियों और टैरिफ का दौर चलता रहा। अमेरिका ने दो-तिहाई चीनी आयातों पर टैरिफ लगा दिया और चार राउंड्स के बाद औसत टैरिफ 3.1 से बढ़कर 21 प्रतिशत हो गया।
इसके जवाब में चीन ने तकरीबन 60 प्रतिशत अमेरिकी निर्यातों पर टैरिफ लगा दिया और औसत टैरिफ 8 से बढ़कर 23 प्रतिशत हो गया। चीन के साथ तीन साल की व्यापारिक जंग के बाद जनवरी 2020 में एक समझौता हुआ, लेकिन टैरिफ जस के तस रहे। चीन ने 200 अरब डॉलर के अमेरिकी सामान खरीदने का वादा किया, जो पूरा नहीं किया गया।
ट्रम्प कहते हैं कि उन्हें टैरिफ से प्यार है। लेकिन उनके इस प्रेम की कोई वजह या सीमा नहीं है। अपने चुनाव-प्रचार के दौरान उन्होंने अलग-अलग मंचों से 10 से 100 प्रतिशत तक टैरिफ लगाने की धमकियां दीं। उनका कार्यकाल शुरू हुए अभी तीन हफ्ते ही हुए हैं और अमेरिका और उसके प्रमुख व्यापारिक साझेदारों के बीच ट्रेड-वॉर शुरू हो गए हैं।
ट्रम्प के टैरिफ युद्ध दूसरे देशों के लिए सबक हैं। टैरिफ से व्यापार घाटा कम नहीं होता, न ही मैन्युफैक्चरिंग बढ़ती है, और न ही नौकरियां सृजित होती हैं। टैरिफ से अल्पकालिक राजनीतिक लाभ भले हो, लेकिन दूरगामी आर्थिक नुकसान अधिक होता है।
ट्रम्प भारत को ‘टैरिफ का बड़ा एब्यूजर (दुरुपयोगकर्ता)’ कहते हैं। शायद वो पूरी तरह से गलत नहीं हैं। भारतीय टैरिफ दोनों देशों के संबंधों में एक बड़ी समस्या बन सकते हैं। टैरिफ घटाने से न केवल ट्रम्प खुश होंगे, बल्कि भारतीय उद्योगों के लिए इम्पोर्टेड इनपुट्स की लागत भी कम होगी, जिससे प्रतिस्पर्धा बढ़ेगी। जो भी हो, भारत को अमेरिका के साथ आक्रामक टैरिफ युद्ध की स्थिति में नहीं आना चाहिए। क्योंकि ट्रेड-वॉर में कोई विजेता नहीं होता, सभी पक्षों को आर्थिक नुकसान होता है।
भारतीय टैरिफ भारत और अमेरिका के संबंधों में बड़ी समस्या बन सकते हैं। टैरिफ घटाने से भारतीय उद्योगों के लिए इम्पोर्टेड इनपुट्स की लागत कम होगी, जिससे प्रतिस्पर्धा बढ़ेगी। लेकिन भारत को टैरिफ-युद्ध में नहीं फंसना चाहिए। (ये लेखिका के अपने विचार हैं।)
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नीरज कौशल का कॉलम: ‘ट्रेड-वॉर’ की स्थिति में कोई भी पक्ष विजेता नहीं होता है