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- Neerja Chaudhary’s Column What Lessons Have We Learned From The 50 year old Emergency?
नीरजा चौधरी वरिष्ठ राजनीतिक टिप्पणीकार
आज आपातकाल को सिर्फ इंदिरा गांधी के नाम से ही जाना जाता है। तत्कालीन प्रधानमंत्री ने 25 जून 1975 को “आंतरिक अशांति’ के नाम पर आपातकाल घोषित किया था, किंतु वास्तव में यह खतरे में घिरी उनकी कुर्सी को बचाने के लिए था। विडम्बना यह है कि 1977 में उन्हें स्वयं ही आपातकाल हटाकर चुनावों की घोषणा करनी पड़ी। इस निर्णय से सभी चकित थे।
आपातकाल के 50 वर्ष पूरे होने को हैं। हमारी याददाश्त कमजोर होती है, लेकिन अतीत में पीछे लौटकर देखने से हमें कुछ जरूरी सीखें मिलती हैं। ऐसे में यह जानना भी उपयोगी होगा कि इंदिरा गांधी ने आपातकाल क्यों लगाया और क्यों उसे हटाने का निर्णय किया।
कहानी 12 जून 1975 को शुरू होती है। सुबह 10.05 बजे खबर आती है कि इलाहाबाद हाईकोर्ट ने इंदिरा गांधी को चुनावों में अनुचित आचरण का दोषी पाकर उनकी संसद सदस्यता समाप्त कर दी है। उसी शाम एक और बुरी खबर आई कि गुजरात में कांग्रेस चुनाव हार गई है। वहां इंदिरा ने जमकर चुनाव-प्रचार किया था, लेकिन युवाओं का नवनिर्माण आंदोलन हार का कारण बना। बांग्लादेश विभाजन के बाद इंदिरा की दुर्गा वाली छवि एकाएक धुंधली हो गई थी।
इंदिरा ने कुछ समय के लिए इस बारे में सोचा कि वे सुप्रीम कोर्ट से दोषमुक्त घोषित होने तक इस्तीफा दे दें और अपनी पसंद के किसी व्यक्ति को प्रधानमंत्री बना दें, लेकिन बाद में उन्होंने यह विचार त्याग दिया। 24 जून को सुप्रीम कोर्ट ने इलाहाबाद हाईकोर्ट के फैसले पर स्टे देने से इनकार कर दिया और आदेश दिया कि इंदिरा लोकसभा की कार्रवाई में न तो हिस्सा ले सकेंगी और न ही वोट दे सकेंगी। 25 जून की रात इंदिरा ने मंत्रिमंडल से चर्चा किए बिना ही आपातकाल की घोषणा कर दी।
25 जून की ही शाम को सर्वोदयी नेता जयप्रकाश नारायण समेत तमाम विपक्षी नेताओं ने दिल्ली के रामलीला मैदान में सभा की थी। यहीं जेपी ने नारा बुलंद किया था : “सिंहासन खाली करो कि जनता आती है।’ सभा के बाद जेपी दिल्ली के गांधी शाति प्रतिष्ठान में ठहरे थे। तड़के 3 बजे जब पुलिस उन्हें गिरफ्तार करने पहुंची तो उन्होंने कहा “विनाश काले विपरीत बुद्धि’।

अटल बिहारी वाजपेयी, लालकृष्ण आडवाणी, मोरारजी देसाई, चरण सिंह, चंद्रशेखर समेत अन्य विपक्षी नेताओं, संघ कार्यकर्ताओं और हजारों उन लोगों को भी पुलिस उठा ले गई, जो इंदिरा की राजनीति का विरोध कर रहे थे। अगले 3-4 महीनों तक इन नेताओं के परिवारों तक को पता नहीं चला कि उन्हें कहां ले जाया गया है।
आगामी 21 महीनों तक इंदिरा गांधी ने तमाम मौलिक अधिकार निलंबित कर दिए थे, प्रेस का दमन किया था, अपनी ताकत बढ़ाने के लिए संविधान संशोधन किए थे, न्यायपालिका की स्वायत्तता को कम किया था, संसद का कार्यकाल बढ़ा दिया था और गरीब किसानों को बिजली-पानी बंद करने की धमकियां दी गई थीं। यह सब उनके पुत्र संजय गांधी की योजनाओं को पूरा करने के लिए हो रहा था। उस वक्त संजय ही इंदिरा की सत्ता के पीछे की एक असंवैधानिक ताकत बने हुए थे।
आज भी विश्लेषक हैरान होते हैं कि इंदिरा गांधी ने 1977 में चुनावों की घोषणा क्यों की? कुछ लोगों का मानना है कि उन्होंने ऐसा इसलिए किया, क्योंकि वे तानाशाह संजय गांधी की मां से ज्यादा लोकतांत्रिक पं. नेहरू की बेटी थीं। कुछ अन्य का मत है कि इसके पीछे आपातकाल के समर्थक रहे विनोबा भावे और कम्युनिस्ट पार्टी का दवाब था।
जब पहली बार विनोबा ने उनसे विपक्षी नेताओं को छोड़ने की मांग की तो इंदिरा ने कहा था कि वे भी ऐसा ही करतीं, लेकिन 15 अगस्त 1975 को बांग्लादेश के संस्थापक शेख मुजीबुर्रहमान की हत्या के बाद उन्हें लगा कि यह उनके साथ भी हो सकता है। उन्होंने विपक्षी नेताओं से भी मुलाकात की, ताकि उनके रुख को नरम किया जा सके। वहीं आईबी ने इंदिरा गांधी को बताया था कि वे 340 सीटें जीत रही हैं।
तो क्या हमने आपातकाल से कुछ सबक सीखा है? राहुल गांधी ने चार वर्ष पहले स्वीकारा था कि आपातकाल एक “बड़ी गलती’ थी। हालांकि कई विरोधी आज के भाजपा शासन को भी “अघोषित आपातकाल’ बताते हैं, क्योंकि विपक्षियों के खिलाफ एजेंसियों का उपयोग हो रहा है। लेकिन अगर भाजपा ने आपातकाल से कोई सबक लिया होगा तो वो यही होगा कि इंदिरा गांधी की भूल को कभी नहीं दोहराना है!
आज भी विश्लेषक हैरान होते हैं कि इंदिरा गांधी ने 1977 में चुनावों की घोषणा क्यों की? कुछ लोगों का मानना है कि उन्होंने ऐसा इसलिए किया, क्योंकि वे तानाशाह संजय गांधी की मां से ज्यादा लोकतांत्रिक पं. नेहरू की बेटी थीं। (ये लेखिका के अपने विचार हैं)
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नीरजा चौधरी का कॉलम: 50 साल पुराने आपातकाल से हमने क्या सबक सीखे हैं?