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नवनीत गुर्जर
जबां फिर से बदलने लग गई है। कि जैसे आसमां के रंग बदलते हैं। कि जैसे रेल, पटरियां बदलती है। कि जैसे गांव की लड़की सुबह जागे और जबरदस्ती ब्याह दी जाए। उसी तरह बदलने लग गई है लफ्जों की चमड़ी। ये लफ्ज कभी-कभी हाथों में तलवार लिए बैठे रहते हैं।
किसी को यह सब देखना अच्छा लगता है। किसी को नहीं। अभिव्यक्ति की आजादी होनी चाहिए, लेकिन कितनी? किस हद तक? किस-किस विषय पर? किस-किस मुद्दे पर? दरअसल, इसकी कोई एक सीमा या परिभाषा गढ़ी नहीं जा सकती। जिस विषय, मुद्दे या व्यक्ति की जितनी सहनशक्ति हो सकती है, यह उतनी ही आजाद है या होनी चाहिए।
बोलने वाले अक्सर इस परिभाषा या सीमा का जब ध्यान नहीं रखते, जिसके खिलाफ बोला जाता है या हास्य किया जाता है, वह जब अपनी सहनशक्ति को विशाल नहीं रखता तो झगड़े होते हैं। सही है अभिव्यक्ति पर कोई पाबंदी नहीं होनी चाहिए, लेकिन किसी के निजी जीवन या उसकी निजता को आपकी भाषा किस हद तक प्रभावित कर रही है, यह सवाल हमेशा बना रहता है।
क्योंकि अभिव्यक्ति कोई परिंदा नहीं है जिसके लिए कोई सीमा ही नहीं हो। कोई सरहद उसे रोके ही नहीं!
जहां तक नेताओं के खिलाफ हास्य या व्यंग्य की बात है, नेहरू जी, अटल जी और मनमोहन सिंह पर खूब हास्य बने, व्यंग्य भी लिखे गए लेकिन उन्होंने उन सब को घोर सकारात्मक रूप में लिया। अगर कुछ अच्छा लगा तो सुधार भी किए गए।
लेकिन आज की राजनीति वैसी नहीं रही। जिस तरह राजनीति का स्तर नीचे आया है, नेताओं की सहनशक्ति भी कम हुई है। कहा यह भी जा सकता है कि कुछ लोग आजकल सस्ती लोकप्रियता हासिल करने के लिए भी राजनेताओें या बड़े लोगों पर बोलते रहते हैं। उस बात का प्रभाव या कुप्रभाव जानते हुए भी।

कुल मिलाकर ऐसे मामलों में दोनों पक्षों को सम्भलना होगा। क्योंकि धैर्य के साथ किसी बात पर विचार करने, उसे समझने या समझ-बूझकर बोलने का समय किसी के पास नहीं है। सबसे बड़ी विडम्बना है समय की कमी। धीरज की कमी।
निश्चित ही एकनाथ शिंदे पर व्यंग्य गीत लिखने से पहले कुणाल कामरा उसका परिणाम जानते होंगे लेकिन फिर भी उन्होंने लिखा। अब इधर-उधर भागते फिर रहे हैं। व्यंग्य या हास्य एक ऐसी विधा है जो कितना ही कड़ा और पैना हो, लेकिन उसमें साहित्य की स्वस्थ परम्परा का ध्यान जरूर रखा जाता है। व्यवस्था पर व्यंग्य करना अलग बात है और किसी पर निजी रूप से
व्यंग्य करना अलग। लेकिन जहां तक सत्ता या राजनीति का सवाल है, उसे ऐसा भी नहीं करना चाहिए कि सबके होंठ बंद हो जाएं। कि जैसे जेल के दरवाजे हों!
लोगों के हाल ऐसे भी नहीं होने चाहिए, जैसे दांतों के बीच जीभ के होते हैं। हमेशा बचकर। हटकर। कभी लहूलुहान होती हुई। कभी कटती-जलती हुई। वो जमाने बीत गए जब हवाएं हाकिमों की मुट्ठी में कैद रहती होंगी। अब सब आजाद हैं।
कोई कुछ भी बोल सकता है सिवाय किसी पर निजी हमला करने के। चाहे वो हमला सीधा हो या जुबानी ही क्यों न हो! मर्यादा हर तरफ जरूरी है और इस मर्यादा का ध्यान हर किसी को रखना ही चाहिए। चाहे वो कोई नेता या राजनेता हो! या कोई हास्य कलाकार या व्यंग्यकार!
अभिव्यक्ति पर पाबंदी नहीं होनी चाहिए, लेकिन किसी के निजी जीवन या उसकी निजता को आपकी भाषा किस हद तक प्रभावित कर रही है, यह सवाल हमेशा बना रहता है। अभिव्यक्ति कोई परिंदा नहीं है कि कोई सरहद उसे रोके ही नहीं!
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नवनीत गुर्जर का कॉलम: हमारी अभिव्यक्ति आखिर कितनी आजाद हो?