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- D. Subbarao’s Column: It Will Be Difficult For America To Regain India’s Trust
डी. सुब्बराव आरबीआई के पूर्व गवर्नर
ट्रम्प की नीतियां भारत को कुछ समय की पीड़ा दे सकती हैं, पर वे अमेरिका को दीर्घकालिक क्षति पहुंचाएंगी। एक अहम रणनीतिक साझेदार को कमजोर कर, अपने यहां महंगाई बढ़ाकर और डॉलर से अलगाव करके ट्रम्प अमेरिका का आर्थिक दबदबा कमजोर करने का जोखिम उठा रहे हैं। इससे चीन के विरुद्ध अमेरिका की हिन्द-प्रशांत रणनीति भी कमजोर होती है।
भारतीय टैरिफ से नाराज हैं। इसलिए नहीं कि ये टैरिफ कठोर हैं, बल्कि उन्हें लगता है कि वे निशाना बनाए गए हैं। ट्रम्प ने रूस से तेल खरीद के कारण भारत पर अतिरिक्त 25% शुल्क लगाया, लेकिन चीन और यूरोपीय संघ के साथ ऐसा नहीं किया। इतना ही नहीं, ट्रम्प ने यह झूठा दावा भी कर दिया कि भारत उनके कहने पर रूस से तेल लेना बंद करने वाला है।
भारतीय निर्यात में अमेरिका का हिस्सा 20% है। 50% टैरिफ से कपड़ा, झींगा, हीरा और ऑटो कम्पोनेंट्स जैसे लेबर इंटेंसिव क्षेत्र प्रभावित हो सकते हैं। इससे रोजगारों का नुकसान होगा और युवाओं को नौकरी मिलना मुश्किल हाेगा। विश्लेषकों का अनुमान है कि टैरिफ के कारण भारत की जीडीपी ग्रोथ 30-80 आधार अंकों तक कम होगी।
यह सब ऐसे समय में हो रहा है, जब भारतीय अर्थव्यवस्था 6% से अधिक की वार्षिक वृद्धि दर से बढ़ रही है। भारत की वस्तुओं-सेवाओं के लिए बाजार तथा निवेश व तकनीकी के स्रोत के तौर पर अमेरिका ही इस कहानी का केंद्र है। इधर अमेरिकी कम्पनियां भी भारत के प्रतिस्पर्धी आपूर्ति तंत्र पर निर्भर हो गई हैं। ट्रम्प टैरिफ से इस परस्पर संबंध के भी बाधित होने का खतरा है।
लेकिन यूएस सप्लाई चेन के लिए अहम भारतीय वस्तुओं पर उच्च टैरिफ से अमेरिका में भी कीमतें बढ़ेंगी। ऐसी नीति से अमेरिका का ही नुकसान है और टैरिफ से बढ़ा मूल्य-दबाव ट्रम्प की राजनीतिक पूंजी कमजोर कर सकता है। रूस से हमारी रियायती तेल खरीद ने वैश्विक बाजार में कच्चे तेल की कीमतों को कम किया है।
इससे परोक्ष तौर पर पश्चिमी अर्थव्यवस्थाओं को लाभ ही हुआ है। इस तेल खरीद के अचानक बंद होने से कीमतें बढ़ सकती हैं। इससे दुनियाभर में महंगाई बढ़ेगी, जिसमें अमेरिका भी शामिल है। इससे ट्रम्प का आर्थिक एजेंडा उलटे कमजोर ही होगा।
ट्रम्प प्रशासन द्विपक्षीय व्यापार घाटे पर गुस्सा दिखाने के फेर में बड़े लाभों को अनदेखा कर रहा है। भारतीय छात्र अमेरिका में सबसे बड़े विदेशी छात्र समूह के तौर पर वहां की अर्थव्यवस्था में सालाना अरबों डॉलर का योगदान देते हैं। अमेरिकी तकनीकी कम्पनियां भारतीय प्रतिभाओं पर निर्भर हैं।
इधर, भारत भी बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के ग्लोबल कैपेबिलिटी सेंटर्स का केंद्र बन गया है, जो कम लागत में आईटी सपोर्ट, डिजाइन, अकाउंटिंग, ग्राहक सेवा और अन्य सुविधाएं देकर कॉर्पोरेट लाभ बढ़ाते हैं। टैरिफ इस पारस्परिक इको-सिस्टम में अस्थिरता का खतरा पैदा कर रहे हैं।
अमेरिका को सबसे बड़ा दीर्घकालिक नुकसान तो उस भारतीय मध्यम वर्ग तक अपनी पहुंच खोने से होगा, जिसके 2030 तक 80 करोड़ से अधिक लोगों का उपभोक्ता बाजार बनने की उम्मीद है। मनमाने टैरिफ से भारत को अलग-थलग करने के गहरे भू-राजनीतिक जोखिम भी हैं। बीते दो दशकों से अमेरिकी सरकारें क्वाड, बढ़ती इंटेलिजेंस शेयरिंग और सप्लाई चेन में भूमिका बढ़ाने जैसे कदमों से चीन के खिलाफ भारत को संतुलनकारी ताकत के तौर पर इस्तेमाल करती रही हैं। आज यह नीति भी जोखिम में है।
ब्रिक्स के पांच सदस्य- ब्राजील, रूस, भारत, चीन और दक्षिण अफ्रीका- अमेरिकी दबदबे का सामना करने के लिए साझा तौर पर एकजुट हो रहे हैं। टैरिफ के निर्णय समेत समेत ट्रम्प की अन्य नीतियां डॉलर को दरकिनार कर एक वैकल्पिक भुगतान प्रणाली विकसित करने के प्रयास बढ़ा रही हैं। इस मोर्चे पर आंशिक सफलता भी मिली तो इसके दूरगामी प्रभाव होंगे।
अमेरिका डी-डॉलराइजेशन को तेज करते हुए वैश्विक व्यापार से अपनी पकड़ को कमजोर कर रहा है। ऐसे में भारत को निर्यात बाजार को बढ़ाना और घरेलू उद्योगों को मजबूती देना चाहिए। इससे आत्मनिर्भरता में मदद मिलेगी। (© प्रोजेक्ट सिंडिकेट)
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डी. सुब्बराव का कॉलम: अमेरिका के लिए भारत का भरोसा फिर से पाना मुश्किल