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ज्यां द्रेज का कॉलम: रोजगार की गारंटी हमारी विशेषता, इसकी रक्षा करें Politics & News

ज्यां द्रेज का कॉलम:  रोजगार की गारंटी हमारी विशेषता, इसकी रक्षा करें Politics & News

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5 घंटे पहले

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ज्यां द्रेज प्रतिष्ठित अर्थशास्त्री व समाजशास्त्री

अगर कोई एक पहल है जिसके लिए भारत को विश्वगुरु कहा जाना चाहिए, तो वह है रोजगार गारंटी। किसी देश में मनरेगा जैसा कानून नहीं है। लेकिन कई देश इस प्रयोग को देख रहे हैं और इससे प्रेरणा ले रहे हैं। मनरेगा के पहले पांच साल ऊर्जा व उम्मीद से भरे थे। बड़ी संख्या में मजदूर काम करने लगे थे। यह उनके और खासकर महिलाओं के लिए नया अवसर था। योजना आकर्षक थी, क्योंकि उस समय मनरेगा की मजदूरी बाजार-मजदूरी से अधिक थी।

कार्यक्रम शुरू होने के पांच साल बाद यानी 2011-12 में 5 करोड़ परिवार मनरेगा के तहत कुछ न कुछ काम कर रहे थे। इस कार्यक्रम से 200 करोड़ से ज्यादा व्यक्ति-दिवस यानी हर नियोजित परिवार को औसतन 40 दिन का काम मिल रहा था।

आधे से ज्यादा मजदूर महिलाएं थीं और लगभग 40 प्रतिशत अनुसूचित जाति या अनुसूचित जनजाति के थे। ये आधिकारिक आंकड़े हैं। लेकिन दो स्वतंत्र घरेलू सर्वेक्षणों (भारत मानव विकास सर्वेक्षण और राष्ट्रीय प्रतिदर्श सर्वेक्षण) द्वारा भी इनकी पुष्टि की गई है।

आज स्थिति क्या है? कहना बहुत मुश्किल है। अगर हम आधिकारिक आंकड़ों पर गौर करें तो मनरेगा की सेहत बहुत अच्छी है। यह 2011-12 की तुलना में और भी ज्यादा रोजगार पैदा करता है : लगभग 300 करोड़ व्यक्ति-दिवस प्रतिवर्ष।

हालांकि, आज इन आधिकारिक आंकड़ों को मान्य करने के लिए कोई स्वतंत्र सर्वेक्षण उपलब्ध नहीं है। कौन जानता है कि इन 300 करोड़ व्यक्ति-दिनों के रोजगार में से कितने असली हैं और कितने नकली? केंद्र सरकार ने यह धारणा बनाई है कि आधार-आधारित भुगतान जैसे तकनीकी उपायों ने मनरेगा में भ्रष्टाचार को लगभग खत्म कर दिया है। लेकिन मनरेगा मजदूरों, कार्यकर्ताओं और अन्य चिंतित नागरिकों का सामूहिक अनुभव बहुत अलग है। उनके बीच, यह व्यापक रूप से साझा धारणा है कि मनरेगा में भ्रष्टाचार बढ़ा है।

जब 20 साल पहले मनरेगा पारित हुआ था, तो उम्मीद थी कि सूचना का अधिकार (आरटीआई) भ्रष्टाचार को खत्म कर देगा। याद रखें, मनरेगा और आरटीआई अधिनियम एक ही वर्ष में पारित किए गए थे। इनके पीछे विचार यह था कि भ्रष्टाचार गोपनीयता पर पनपता है, और अगर गोपनीयता हटा दी जाए, तो भ्रष्टाचार मुश्किल हो जाएगा।

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हालांकि, पारदर्शिता अधूरा कदम है। मनरेगा रिकॉर्ड का खुलासा करने से तब तक कोई खास फर्क नहीं पड़ता जब तक कि रिकॉर्ड सत्यापित न हो जाएं। इस अहसास ने सामाजिक अंकेक्षण के विचार को जन्म दिया। सामाजिक अंकेक्षण के दौरान, मनरेगा रिकॉर्ड को सार्वजनिक रूप से सत्यापित किया जाता है।

सामाजिक अंकेक्षण ने निश्चित रूप से भ्रष्टाचार को कम करने में मदद की है। वे सतर्कता और सत्यापन में बड़ी संख्या में लोगों को शामिल करते हैं। लेकिन रिकॉर्ड की जांच करना ही काफी नहीं है। बदमाशों को सजा देना भी जरूरी है।

जब तक उनको सजा नहीं मिलेगी, वे पकड़े जाने के बाद भी धोखाधड़ी करते रहेंगे। पारदर्शिता, सत्यापन, कार्रवाई- भ्रष्टाचार को रोकने के लिए तीनों की आवश्यकता हैं। यहीं पर सरकारों की बड़ी विफलता है। जब भ्रष्टाचार सामने आता है, तो आमतौर पर ग्राम रोजगार सेवक जैसे छोटे अधिकारियों पर कार्रवाई की जाती है।

पर्दे के पीछे काम करने वाले असली बदमाशों को शायद ही कभी सजा मिलती है, भले ही उनका पर्दाफाश हो जाए। यह विफलता आकस्मिक नहीं है। अधिकांश भ्रष्ट बिचौलिए राजनीतिक दलों के साथ मिले हुए हैं। राजनेता उन्हें संरक्षण देते हैं। यह भारत में चुनावी लोकतंत्र का दुखद पहलू है। केवल जनांदोलनों और मजदूर संगठनों के दबाव में ही सरकारें बिचौलियों के खिलाफ कार्रवाई करती हैं। यदि मनरेगा से भ्रष्टाचार को खत्म करना है तो इस दबाव को बढ़ाना होगा।

यह भी सुनिश्चित करना जरूरी है कि मजदूरी का भुगतान समय पर हो। जब इसमें देरी होती है, तो मजदूरों की दिलचस्पी खत्म हो जाती है। इससे सतर्कता नहीं रहती और भ्रष्टाचार फैलता है। भ्रष्टाचार से वित्त-वर्ष के बीच में ही फंड खत्म हो जाता है, क्योंकि बहुत सारा पैसा बर्बाद हो जाता है। फंड खत्म होता है, तो मजदूरी भुगतान में देरी बढ़ती रहती है। मनरेगा इस दुष्चक्र में फंसने के खतरे में है।

(ये लेखक के अपने विचार हैं)

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