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जयती घोष मैसाचुसेट्स एमहर्स्ट यूनिवर्सिटी में प्रोफेसर
व्हाइट हाउस में वापसी करने के बाद से ट्रम्प ने जितने भी भू-राजनीतिक करतब दिखाए हैं, उनमें से संयुक्त राष्ट्र महासभा (यूएनजीए) में अमेरिका की वोटिंग उनकी मंशाओं के बारे में सबसे अधिक खुलासा करने वाली थी।
सबसे पहले तो अमेरिका ने एक ऐसे नेक इरादे वाले प्रस्ताव का विरोध किया, जो अंतरराष्ट्रीय शांतिपूर्ण सह-अस्तित्व दिवस की स्थापना करना चाहता था और जो सस्टेनेबल-डेवलपमेंट के लिए यूएन के 2030-एजेंडे को पुख्ता बनाता था।
यह एक प्रतीकात्मक प्रस्ताव भर था, इसके बावजूद अमेरिका ने इसके खिलाफ मतदान किया। उसके प्रतिनिधि एडवर्ड हार्टनी ने स्पष्ट किया कि अमेरिका एजेंडा-2030 और सस्टेनेबल-डेवलपमेंट के लक्ष्यों को अस्वीकार करता है।
बहरहाल, अमेरिकी विरोध के बावजूद यह प्रस्ताव भारी बहुमत से पारित हो गया। 162 देशों ने इसके पक्ष में मतदान किया, दो देश मतदान से दूर रहे तथा केवल तीन देशों- अमेरिका, इजराइल और अर्जेंटीना ने इसके खिलाफ मतदान किया।
बाद में अमेरिका ने अंतरराष्ट्रीय आशा दिवस और अंतरराष्ट्रीय न्यायिक कल्याण दिवस की स्थापना के लिए आमंत्रित किए गए संयुक्त राष्ट्र महासभा के प्रस्तावों का भी विरोध करते हुए अपनी आवाज दोगुनी कर दी। शिक्षा के लिए सभी के अधिकारों की पुष्टि करने वाले प्रस्ताव के खिलाफ एकमात्र वोट भी अमेरिका का ही था, जिसमें युवा महिलाओं सहित युवाओं के लिए समान अवसरों के महत्व पर प्रकाश डाला गया था।
कारण? संभवतः क्योंकि यह ट्रम्प प्रशासन के घरेलू एजेंडे के एक आधारस्तम्भ के प्रतिकूल था : विविधता, समानता और समावेश के कार्यक्रमों को खत्म करना।
ये कदम संयुक्त राष्ट्र से अमेरिका के बाहर निकलने का पूर्वाभास देते हैं, जिसका कि इलॉन मस्क और अन्य ट्रम्प समर्थकों ने भी आग्रह किया है। ट्रम्प पहले ही विश्व स्वास्थ्य संगठन से अमेरिका को बाहर निकाल चुके हैं और उन्होंने पेरिस जलवायु समझौते को भी त्याग दिया है।
उनके प्रशासन ने मानवाधिकार परिषद (यूएनएचआरसी) और फिलिस्तीनी शरणार्थियों के लिए राहत और कार्य एजेंसी सहित संयुक्त राष्ट्र के कई निकायों से अमेरिका को वापस ले लिया है। वह यूनेस्को में अपनी भागीदारी पर भी पुनर्विचार कर रहा है।

अमेरिका की ये कार्रवाइयां- साथ ही यूक्रेन पर रूस के आक्रमण की निंदा करने वाले प्रस्ताव का विरोध- यह दर्शाता है कि ट्रम्प प्रशासन केवल कुछ अंतरराष्ट्रीय संस्थाओं से ही नाखुश नहीं है। बल्कि यह मूलतः किसी भी बहुपक्षीय ढांचे का विरोधी है, जो देशों के बीच समानता का सुझाव देता हो।
कुछ विश्लेषकों का तर्क है कि यूएन से अमेरिका का पूरी तरह से हटना असंभव है, क्योंकि उसकी सुरक्षा परिषद में अमेरिका का वीटो बहुत प्रभाव रखता है। लेकिन भू-राजनीति के प्रति ट्रम्प के दृष्टिकोण को देखते हुए- जहां कूटनीति नहीं ताकत ही मायने रखती है- वह भी गैर-जरूरी लग सकता है।
यदि अमेरिका यूएन से बाहर निकलता है तो इसके वित्तीय परिणाम गंभीर हो सकते हैं। यूएन के सबसे बड़े फाइनेंशियल समर्थक के रूप में अमेरिका ने 2022 में रिकॉर्ड 18.1 अरब डॉलर का योगदान दिया था, जो संगठन के कुल वित्त-पोषण का लगभग 20% है।
इसमें से भी 70% से अधिक हिस्सा यूएन की चार संस्थाओं को गया था : 40% विश्व खाद्य कार्यक्रम को, 12% शरणार्थी उच्चायुक्त को, 10% यूनिसेफ को और 10% शांति अभियान विभाग को। और चूंकि इस फंडिंग का अधिकांश हिस्सा यूएसएड के माध्यम से आता था, जिसे ट्रम्प ने बंद कर दिया है, तो शायद यह फंडिंग भी पहले ही समाप्त हो चुकी हो। यह यूएन प्रणाली के लिए एक बड़ा झटका है और इसके परिणामस्वरूप उसके कई महत्वपूर्ण कार्यक्रम अब खतरे में हैं।
ट्रम्प प्रशासन ने मनमाने एकतरफावाद और दबाव की रणनीति के प्रति अपने झुकाव को स्पष्ट रूप से व्यक्त कर दिया है। वह अंतरराष्ट्रीय संस्थाओं के माध्यम से काम करने के बजाय देशों को धमकाने के लिए अपने दमखम का उपयोग कर रहा है।
जब दुनिया की अग्रणी महाशक्ति ही वैश्विक सहयोग से मुंह मोड़ने लगेगी तो बहुपक्षीय शासन की वह प्रणाली- जिसे अमेरिका ने लगभग आठ दशक पहले स्थापित करने में मदद की थी- बिखरने लग सकती है। इसका उलटा भी सच है।
ट्रम्प के कारण दुनिया के अन्य देश अधिक निकटता से मिल-जुलकर काम करने के लिए प्रेरित भी हो सकते हैं। इसका कारण भी स्पष्ट है। चाहे व्हाइट हाउस कितने भी जोरदार तरीके से इसका खंडन क्यों न करे, लेकिन मानवता के समक्ष आज मौजूद सबसे बड़ी चुनौतियां वैश्विक प्रकृति की ही हैं।
जब अमेरिका जैसी दुनिया की अग्रणी महाशक्ति ही वैश्विक सहयोग से मुंह मोड़ने लगेगी तो बहुपक्षीय शासन की प्रणाली बिखरने लग सकती है। जबकि इसे अमेरिका ने ही लगभग आठ दशक पहले स्थापित करने में मदद की थी। (© प्रोजेक्ट सिंडिकेट)
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जयती घोष का कॉलम: अमेरिका को संयुक्त राष्ट्र से निरंतर दूर ले जा रहे हैं ट्रम्प