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चेतन भगत का कॉलम: हम महिलाओं को रसोईघर में काम से क्यों लाद देते हैं? Politics & News

चेतन भगत का कॉलम:  हम महिलाओं को रसोईघर में काम से क्यों लाद देते हैं? Politics & News

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4 घंटे पहले

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चेतन भगत, अंग्रेजी के उपन्यासकार

“मिसेज’ एक कम बजट की फिल्म है, जिसका प्रीमियर सीधे ओटीटी पर हुआ है। यह मलयालम फिल्म “द ग्रेट इंडियन किचन’ का रीमेक है। फिल्म एक ऐसी भारतीय महिला की कहानी बताती है, जिसे विवाह के बाद पता चलता है कि उससे पारंपरिक तरीकों (जैसे, सिलबट्टे पर पिसी चटनी) का उपयोग करके भोजन पकाने की उम्मीद की जाती है।

उसके पति और ससुराल वालों को लगता है कि जब वे कैसरोल में रखी रोटियों के बजाय तवे से उतरी फुलकियों के लिए अनुरोध करते हैं, तो वे कुछ गलत नहीं कर रहे होते। लेकिन इसका परिणाम यह रहता है कि महिला का जीवन नीरस हो जाता है, जिसमें उसकी छोटी-छोटी गलतियों की तो आलोचना की जाती है, लेकिन उसकी जरूरतों और इच्छाओं की उपेक्षा की जाती है।

फेमिनिज्म एक व्यापक विषय है, जिसमें भ्रूण हत्या से लेकर महिलाओं की सुरक्षा सुनिश्चित करने तक के मुद्दे शामिल हैं। एक पुरुष होने के नाते मैं फेमिनिज्म का प्रतिनिधित्व करने या महिलाओं के अनुभव को पूरी तरह से समझने का दावा तो नहीं कर सकता, लेकिन यह फिल्म एक जरूरी बिंदु को सामने लाती है : हम महिलाओं को खाना पकाने और घरेलू कामों की निरंतर और अथक अपेक्षाओं से लाद देते हैं।

इससे जुड़े एक बड़े मुद्दे पर कभी चर्चा नहीं की जाती और वो यह है कि पितृसत्ता के इस विशिष्ट पहलू की आर्थिक कीमत कितनी है? भारतीय पुरुषों द्वारा गर्मागर्म फुलकों की मांग करने की कीमत इतनी अधिक है कि इसने हमारी जीडीपी को महत्वपूर्ण रूप से प्रभावित किया होगा। मेरी बात पर विश्वास नहीं होता? तो सुनें।

भारतीय पुरुषों की एक पीढ़ी 1970 और 1980 के दशक में तब बड़ी हुई थी, जब अर्थव्यवस्था खुली हुई नहीं थी और अवसर सीमित थे। ऐसे में उनकी सबसे बड़ी आकांक्षा एक आसान सरकारी नौकरी हासिल कर लेने की थी। इनोवेशन या स्टार्ट-अप की संस्कृति नहीं थी।

ये पुरुष औसत दर्जे का जीवन जीते थे और असंतोषजनक नौकरियों में फंसे रहते थे। लेकिन अपने घर पर वो किसी राजा की तरह रहते थे। उनके लिए गर्म चाय, नाश्ता, फुलके और रात्रिभोज उपलब्ध रहता था। उन्हें मिलने वाली सेवाओं का स्तर शायद सत्रहवीं सदी के यूरोपीय सम्राटों से भी बेहतर था। आज भी लाखों भारतीय घरों में एक सरकारी कार्यालय का साधारण कर्मचारी भी रात्रिभोज में सात-सात व्यंजनों की मांग करता है।

हताशा से भरे जीवन में एक औसत, निराश भारतीय पुरुष के लिए उसकी पत्नी ही इकलौती राहत होती थी, जो 24 घंटे उसकी सेवा के लिए तैयार रहती थी। यही कारण है कि पुरुषों ने किसी भी कीमत पर इस व्यवस्था को बनाए रखने के लिए संघर्ष किया, क्योंकि पितृसत्ता ही एकमात्र ऐसी चीज थी जो उन्हें महत्वपूर्ण और मूल्यवान महसूस कराती थी।

क्या आपने देखा है एक औसत मध्यमवर्गीय भारतीय परिवार कैसे भोजन करता है? वे दो सब्जियों, दाल, रायता, अचार, चटनी, पापड़, छाछ, घी, गुड़, चावल और गर्मागर्म फुलकों की अपेक्षा करते हैं। उसके बाद मिठाई, और फिर, पान, मुखवास, चूरन।

हमें होश है कि हम क्या कर रहे हैं? क्या खानपान इतना महत्वपूर्ण है कि हर भोजन को एक समारोह में बदल दिया जाए? यह सेहत के लिए भी अच्छा नहीं है। मधुमेह के आंकड़े देख लीजिए। प्रत्येक भोजन को तैयार करने में लगने वाला श्रम बहुत अधिक होता है। हम सरल भोजन क्यों नहीं खा सकते? दुनिया में लोग तो लंच में सैंडविच खाकर भी सेहतमंद रहते हैं।

अगर भारतीय महिलाओं को इतना भोजन तैयार करने के बोझ से मुक्त कर दिया जाए, तो उस अतिरिक्त श्रम, प्रतिभा और कौशल के बारे में सोचें, जो हमारी अर्थव्यवस्था में योगदान दे सकता है। महिलाओं को दबाकर रखने का मतलब एक गरीब राष्ट्र बने रहना भी होता है, और हाल ही के डेटा इसके गवाह हैं। गर्मागर्म रोटियों और सिलबट्टे पर पिसी चटनियों की हमारी लिप्सा हमें बहुत महंगी पड़ रही है!

अगर महिलाओं को इतना सारा भोजन तैयार करने के बोझ से मुक्त कर दिया जाए, तो उस अतिरिक्त श्रम, प्रतिभा, कौशल के बारे में सोचें, जो अर्थव्यवस्था में योगदान दे सकता है। गर्मागर्म रोटियों की लिप्सा बहुत महंगी पड़ रही है। (ये लेखक के अपने विचार हैं)

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