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चेतन भगत का कॉलम: हम पड़ोसी देशों की गलतियों से सबक सीखें Politics & News

चेतन भगत का कॉलम:  हम पड़ोसी देशों की गलतियों से सबक सीखें Politics & News

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3 घंटे पहले

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चेतन भगत, अंग्रेजी के उपन्यासकार

सच कहूं तो ज्यादातर भारतीय न तो नेपाली राजनीति से वाकिफ हैं और न ही उनकी उसमें कोई दिलचस्पी है। नेपाल के बारे में कई स्टीरियोटाइप प्रचलित हैं कि वहां के लोग सौम्य, शांतिप्रिय और खुशहाल होते हैं, सद्भाव से रहते हैं और आम तौर पर भारत के अच्छे दोस्त हैं। यही कारण है कि दोनों देशों के बीच खुली सीमाओं के बाद भी उनका आपस में कोई बड़ा टकराव नहीं हुआ।

लेकिन इस सबके बावजूद नेपाल के युवाओं- खासकर जेन-जी- के उग्र विद्रोह ने वहां सरकार गिरा दी। सितंबर की शुरुआत में सरकार द्वारा कई सोशल मीडिया प्लेटफॉर्मों पर प्रतिबंध लगाने के बाद विरोध-प्रदर्शन शुरू हो गए थे। इससे पता चलता है कि ऑनलाइन पीढ़ी से सोशल मीडिया छीन लेंगे तो नतीजे अच्छे नहीं होंगे।

लेकिन सोशल मीडिया पर प्रतिबंध तो बस एक ट्रिगर था। विद्रोहों के पीछे भ्रष्टाचार, भाई-भतीजावाद, आर्थिक मंदी को लेकर गहरी कुंठाएं छिपी थीं। लोगों में इस बात को लेकर गुस्सा था कि राजनीतिक कुलीन वर्ग विशेषाधिकारों का आनंद ले रहा है, जबकि आम नागरिकों के पास बहुत कम अवसर हैं।

2021 में हमारे एक और पड़ोसी देश श्रीलंका को भी मंदी का सामना करना पड़ा था। वहां जरूरी चीजों जैसे भोजन और ईंधन की भारी कमी के कारण यह स्थिति पैदा हुई थी। जबकि बांग्लादेश में 2024 में विद्रोह की चिंगारी 1971 के स्वतंत्रता सेनानियों के वंशजों, या कहें बांग्लादेश को आजाद कराने में मदद करने वाले लोगों के लिए 30% कोटा की बहाली से भड़की। तो आप पैटर्न समझ रहे हैं? हमारे तीन पड़ोसी देशों में हुए विद्रोहों के तीन ट्रिगर थे- सोशल मीडिया बैन, किल्लत और बेरोजगारी।

इन सभी मामलों में कुछ ऐसा हुआ था, जो लोगों के रोजमर्रा की जीवन को प्रभावित करता था। भ्रष्टाचार और असमानता को लेकर व्यापक निराशा ने समाज के सभी वर्गों को सड़कों पर ला खड़ा किया। और हालांकि हम अभी नहीं जानते कि नेपाल के हालात आगे क्या मोड़ लेंगे, लेकिन इतिहास बताता है कि इस तरह के सत्ता-विरोधी विद्रोह शायद ही कभी तत्काल सुधार लाते हैं।

सबसे अच्छा तो यही है कि चीजों को उफान पर आने से पहले ही रोक लिया जाए। इसका मतलब है, एक तो उन तात्कालिक ट्रिगर्स को रोकना, जो आंदोलनों को भड़काते हैं। और दूसरा, लोगों में पनपने वाली दीर्घकालिक निराशा से भरसक बचना।

अच्छी खबर यह है कि भारत में इस तरह के संकट का खतरा कम है। हमारी अर्थव्यवस्था बड़ी, अधिक विविधतापूर्ण और गहरी है। हालांकि हम अभी तक एक आदर्श स्थिति में नहीं हैं, फिर भी कई लोगों के जीवन-स्तर में कुछ साल पहले की तुलना में बहुत सुधार हुआ है।

हां, निराशा भी है, लेकिन भारत में उसे व्यक्त करने के कई आउटलेट्स हैं : चुनाव, सोशल मीडिया, अदालतें और क्रियाशील कानून-व्यवस्था। खाने-पीने जैसी जरूरी चीजों की किल्लत की हमारे यहां फिलहाल तो कोई आशंका नहीं। वास्तव में, आज हम करोड़ों लोगों को सार्वजनिक वितरण प्रणाली के जरिए मुफ्त राशन देते हैं। डेटा सस्ता है, और भोजन भी। तो कुल-मिलाकर भारत में जिंदगी इतनी बुरी नहीं है, है ना?

यही कारण है कि हमारे यहां श्रीलंका, बांग्लादेश या नेपाल जैसी स्थिति बनने की संभावना कम ही है। हां, भारत की विशालता को देखते हुए स्थानीय स्तर पर यहां-वहां कुछ उपद्रव जरूर हो सकते हैं। ऐसे में तैयार रहना ही बेहतर होगा। भारत को यह सुनिश्चित करना होगा कि ऐसी स्थितियां उत्पन्न न हों- स्थानीय स्तर पर नहीं, और यकीनन केंद्रीय स्तर पर भी नहीं। ऐसा करने के लिए सरकार को तीन फैक्टर्स पर नजर रखनी चाहिए- इन्हें हम तीन “ई’ कह सकते हैं

1. इकोनॉमी : विकास मायने रखता है। यदि जीडीपी वृद्धि दर 6% से ऊपर रहती है, तो लोगों को अधिक अवसर दिखाई देंगे और वे बेहतर महसूस करेंगे। सौभाग्य से, भारत ने हाल के वर्षों में मजबूत विकास देखा है। 2. इक्वेलिटी : इसमें आर्थिक, राजनीतिक और अवसरों की समानताएं शामिल हैं।

कोई भी देश पूर्ण समानता प्राप्त नहीं कर सकता, लेकिन परिवर्तन की दिशा मायने रखती है। अवसरों की समानता के लिए हमारी योजनाओं को यह दिखाना होगा कि हमारी सरकार केवल विशेषाधिकार प्राप्त लोगों की ही नहीं, बल्कि आम युवाओं की भी परवाह करती है। वहीं राजनीतिक समानता के लिए, विपक्ष को खुलकर काम करने की अनुमति दी जानी चाहिए, ताकि लोगों को लगे कि उनकी आवाज ऊपर तक पहुंचाई जा सकती है।

3. इसेंशियल्स : हमारे पड़ोसी देशों में हुए विद्रोहों के मूल में लोगों को किसी न किसी आवश्यक वस्तु से वंचित कर देना था। आज कनेक्टिविटी भी रोटी-कपड़ा-मकान जैसी इसेंशियल चीजों में शुमार है। लोगों के लिए खाने-पीने की चीजें और ईंधन के भंडार सुनिश्चित करना और व्यापक इंटरनेट शटडाउन से बचना संकटों को और बड़ा होने से रोकने में मदद करता है।

हमारे पड़ोस में अराजकता हमारे लिए अच्छी नहीं है। इसके दुष्परिणाम- अवैध प्रवास, अपराध, अस्थिरता के रूप में सामने आते हैं। क्षेत्र की एक बड़ी ताकत होने के नाते भारत को अपने पड़ोसी देशों में स्थिरता का समर्थन करना चाहिए। लेकिन सबसे बढ़कर, हमें उनकी गलतियों से जरूरी सबक सीखने होंगे।

बेहतर होगा कि विद्रोहों की नौबत ही नहीं आने दी जाए… अच्छा तो यही है कि चीजों को उफान पर आने से पहले ही रोक लिया जाए। इसका मतलब है, एक तो उन तात्कालिक ट्रिगर्स को रोकना, जो आंदोलनों को भड़काते हैं। और दूसरा, लोगों में पनपने वाली दीर्घकालिक निराशा से भरसक बचना। (ये लेखक के अपने विचार हैं)

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