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चेतन भगत का कॉलम: हमारे लिए जरूरी है कि हम पाकिस्तान के ट्रैप में न फंसें Politics & News

चेतन भगत का कॉलम:  हमारे लिए जरूरी है कि हम पाकिस्तान के ट्रैप में न फंसें Politics & News

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3 घंटे पहले

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चेतन भगत, अंग्रेजी के उपन्यासकार

कश्मीर के मामले को कैसे हैंडल किया जाए, इस पर हर किसी के अपने-अपने विचार हो सकते हैं। एक समाधान यह था कि इस क्षेत्र को भारत के साथ और अधिक एकीकृत किया जाए, स्थानीय अर्थव्यवस्था में सुधार किया जाए, युवाओं के लिए अवसर पैदा किए जाएं और उम्मीद की जाए कि बेहतर जीवन की संभावनाओं के साथ वहां पर उग्रवाद खत्म हो जाएगा।

2019 से यही प्रयास किया जा रहा था, जब अनुच्छेद 370 को निरस्त कर दिया गया और कश्मीर को भारत के साथ और अधिक जोड़ने के लिए कई नीतियां बनाई गईं। कोई भी इस बात से इनकार नहीं कर सकता कि उस क्षेत्र में कुछ प्रगति हुई थी। पर्यटन बढ़ा था, निवेश बढ़ा था, बुनियादी ढांचे का विकास हुआ था। कश्मीर घाटी पिछले साल हुए दोनों चुनावों के दौरान भी काफी हद तक शांतिपूर्ण रही थी।

लेकिन पहलगाम में हुए आतंकवादी हमले की घटना से पता चलता है कि देश के दुश्मन इस सबसे हताश थे और उन्हें इसमें खलल डालने का एक यही उपाय सूझा कि नृशंस हमला करके घाटी को फिर से लहूलुहान कर दिया जाए। और यही कारण है कि हमें इस घटना पर अपनी प्रतिक्रिया में सावधान रहना चाहिए। क्योंकि शत्रुओं ने हमसे एक निश्चित प्रतिक्रिया प्राप्त करने के लिए ही ऐसा किया था और हमें सावधान रहना चाहिए कि हम उनके झांसे में न आएं।

सबसे पहले तो हमें दुश्मन को समझना चाहिए। पाकिस्तान द्वारा पहलगाम मामले में अपनी संलिप्तता से कई बार इनकार करने के बावजूद इस बात पर विश्वास करने के कई कारण हैं कि इसमें उसकी सेना का हाथ है। रिपोर्ट बताती हैं कि पाकिस्तानी फौज वहां की अवाम के बीच लोकप्रियता खो रही है।

इसमें लोकप्रिय नेता इमरान खान की गिरफ्तारी का भी योगदान है। दूसरे, हमें यह भी समझना चाहिए कि जब ऐसा कोई हादसा होता है तो उस पर हमारी तात्कालिक प्रतिक्रिया भावनात्मक होती है। हम दुश्मन से प्रतिशोध लेना चाहते हैं और उन्हें इससे भी कड़ी चोट पहुंचाना चाहते हैं!

लेकिन क्या हो अगर दुश्मन का इरादा भी यही हो? क्या हो अगर वो ठीक यही चाहते हों कि दोनों देशों के बीच संघर्ष को भड़का दिया जाए? पाकिस्तान की फौज का मनसूबा यह सुनिश्चित करना भी हो सकता है कि मंडरा रहे युद्ध के खतरे के साथ वो पाकिस्तान में और ज्यादा प्रभावी और प्रासंगिक हो जाए? आर-पार के युद्ध की स्थिति में किसी देश में उसकी सेना से ज्यादा महत्वपूर्ण भला और क्या हो सकता है?

यही कारण है कि अगर हम भावनात्मक के बजाय तर्कसंगत प्रतिक्रिया करेंगे तो वह बेहतर होगा। तर्कसंगत प्रतिक्रिया ज्यादा तीखी और दीर्घकालिक होती है, हालांकि वह विशेष रूप से टीवी चैनलों के लिए कम मनोरंजक होती है।

हम पहले ही अपने 26 लोगों को खो चुके हैं, हमें कई सौ या हजार लोगों को खोने की जरूरत नहीं है, जो कि दोनों तरफ से जंग छिड़ने पर अनिवार्य रूप से होगा। ऐसा करके हम पकिस्तानी फौज के जाल में फंस जाएंगे और उसे मनचाहा महत्व देंगे। कश्मीर समस्या का समाधान फिर भी नहीं होगा।

दूसरी तरफ, एक तर्कसंगत प्रतिक्रिया दूरगामी और व्यापक होगी। इसमें पाकिस्तान पर आर्थिक प्रतिबंध लगाने, उसके खिलाफ अंतरराष्ट्रीय लामबंदी करने सहित दूसरे तमाम तरीकों से पाकिस्तान का घेराव करना शामिल है।

जैसे कि दुनिया को यह बताना कि पाकिस्तान का मिलिट्री एस्टैब्लिशमेंट कैसे विश्व-शांति के लिए खतरा है, कैसे वह उत्तर कोरिया की तरह है- परमाणु हथियारों से लैस, लेकिन खतरनाक और अलग-थलग, पाकिस्तान में बलूच आंदोलन जैसे अन्य विद्रोहियों का खुलेआम समर्थन करना, फौज के खिलाफ नैरेटिव को वहां के लोगों में मजबूत करना, और इसके साथ ही भारत की अपनी हिंदू-मुस्लिम एकता, कश्मीर की आर्थिक पुनरुद्धार योजनाओं पर पहले से भी ज्यादा जोर देना। दूसरे शब्दों में, वो सब करना जो पाकिस्तानी फौज हरगिज नहीं चाहती।

क्या तर्कसंगत प्रतिक्रिया केवल शांतिपूर्ण प्रतिक्रिया होती है? जरूरी नहीं। भारत को कुछ टारगेटेड रिस्पॉन्स भी करना चाहिए, खास तौर पर पाक सेना के ठिकानों पर, ताकि इस बात पर जोर दिया जा सके कि हमारे निशाने पर हमलावर हैं, आम लोग नहीं।

जबकि अगर हमला फौजी ठिकानों पर नहीं होता है तो इससे पाकिस्तान के लोगों को लगेगा कि भारत उन्हें निशाना बना रहा है और वे फौज को अपनी रक्षक मानकर अपने आप ही उसके पीछे लामबंद हो जाएंगे। पाकिस्तान की फौज यही तो चाहती है और हमें वह बिलकुल नहीं करना है, जो वो चाहते हैं। (ये लेखक के अपने विचार हैं।)

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