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चेतन भगत, अंग्रेजी के उपन्यासकार
अपने वजन की समस्या से जूझने वाले किसी भी व्यक्ति से पूछ लीजिए (इनमें यह स्तम्भकार भी शामिल है) और आपको पता चल जाएगा कि वेट-मैनेजमेंट की कोशिशों में कितना समय, ऊर्जा और मानसिक क्षमता लगती है। कागज पर तो इसका मंत्र बिलकुल सरल है- कम खाओ और ज्यादा चलो। लेकिन हकीकत में यह इतना सरल नहीं। हम जिस माहौल में रहते हैं, उसमें ललचाने वाले व्यंजन हमारा पीछा करते रहते हैं।
हमारे यहां तो किसी के लिए प्यार जताने का तरीका भी यह कहना है कि ‘बेटा, एक समोसा और ले लो!’ प्रेम की हमारी राष्ट्रीय-भाषा भोजन ही है। हम यह पूछकर अपना स्नेह व्यक्त करते हैं कि- ‘खाना खाया?’ कोई कभी यह नहीं पूछता कि- ‘थोड़ा कम खाया?’ ज्यादा चलो वाला हिस्सा तो और कठिन है।
ट्रिलियन-डॉलर वैल्यू वाली टेक कंपनियों ने हमें रील्स, वीडियो और बिंज-वॉचिंग के जाल में फंसा दिया है। एक्सरसाइज-कल्चर टुकड़ों में बंट गई है- थोड़ी वॉकिंग, थोड़ा योग- सब कुछ अनियमित। बाहर निकलो तो प्रदूषण, ट्रैफिक, आवारा कुत्ते जैसी समस्याएं और पैदल चलने की कोई सुविधाएं नहीं। अब तो बच्चे भी बाहर नहीं खेलते।
नतीजा यह है कि आज भारत में करोड़ों लोग वजन नहीं घटा पा रहे हैं। और फिर, जीएलपी-1 दवाओं का आगमन हुआ। ये दवाएं महंगी हैं और हफ्ते में एक बार हमें खुद को इसका इंजेक्शन देना पड़ता है। इसके बावजूद लॉन्च के चंद ही महीनों में ये बिक्री के चार्ट पर चढ़ गईं। क्यों? क्योंकि ये वजन घटाती हैं। हमने वेट-लॉस के लिए तमाम उपाय आजमाकर देख लिए- गोलियां, बेरियाट्रिक सर्जरी, वाइब्रेटिंग बेल्ट, हर्बल जुगाड़- लेकिन इनमें से किसी ने जीएलपी-1 जैसे प्रभावी नतीजे नहीं दिए थे। ये आखिर हैं क्या?
जीएलपी-1 यानी ग्लूकागन-लाइक पेप्टाइड-1। यह एक हार्मोन है। ये दवाएं इसी हार्मोन की नकल करती हैं। ये फूड-क्रेविंग को कम करती हैं, ब्लड शुगर घटाती हैं और वजन कम करने में मदद करती हैं। इनके छोटे डोज भी दिमाग तक पहुंचकर सीधे उसके ‘सैटायटी सेंटर्स’ को सक्रिय कर देते हैं।
रोचक तथ्य यह है कि इन दवाओं पर शोध की शुरुआत जीला मॉन्स्टर नाम की एक छिपकली से हुई थी, जो साल में सिर्फ एक-दो बार खाती है। यानी हम वजन घटाने की जुगत एक छिपकली से सीख रहे हैं! आज ये दवाएं ओजेम्पिक, वेगोवी, माउंजैरो और जेपबाउंड जैसे नामों से बाजार में हैं।
इनके कुछ वेरिएंट अलग हार्मोनों को भी अपना लक्ष्य बनाते हैं; कुछ शुरू में डायबिटीज या स्लीप एप्निया के लिए मंजूर हुए थे। लेकिन अब वे केमिस्ट की दुकानों पर उपलब्ध हैं। एलि लिली ने मई 2025 में भारत में माउंजैरो लॉन्च की थी। अक्टूबर तक वह मूल्य के लिहाज से भारत की सबसे ज्यादा बिकने वाली दवा बन गई- सिर्फ एक महीने में 100 करोड़ रुपए से अधिक की बिक्री। वैश्विक स्तर पर, 2025 की पहली तीन तिमाहियों में माउंजैरो और जेपबाउंड ने 2 लाख करोड़ रुपए कमाए।
भारत में जीएलपी-1 दवाओं की चार हफ्तों की इंजेक्शन-खुराक करीब 13,000 रुपए में आती है। 2026 में कई पेटेंट खत्म हो रहे हैं और भारतीय कंपनियां इनके सस्ते संस्करणों पर तेजी से काम कर रही हैं। नतीजा? अगले कुछ वर्षों में लाखों- शायद करोड़ों की तादाद में- समोसा और गुलाब-जामुन प्रेमी भारतीय लोग इन इंजेक्शनों को आजमाने वाले हैं।
लेकिन क्या यह कोई जादू की छड़ी है? और क्या अब ‘कम खाओ, ज्यादा चलो’ की जगह ‘खूब खाओ और इंजेक्शन लगाओ’ का युग आ गया है? बिलकुल नहीं। क्योंकि इन दवाओं के अपने साइड-इफेक्ट्स हैं- मितली, कब्ज, बदहजमी और पेट से जुड़े तमाम रोग। ये दवाएं पोषक भोजन या व्यायाम का स्थान भी नहीं ले सकतीं।
इनका अधिकतम फायदा यही है कि ये भूख को दबा देती हैं, जिससे एक संतुलित डाइट का पालन करना आसान हो जाता है। लेकिन व्यायाम तो तब भी अनिवार्य होगा- सिर्फ कैलोरी जलाने के लिए ही नहीं, बल्कि मांसपेशियों की मजबूती के लिए भी। इन दवाओं के दुरुपयोग का खतरा भी है। लापरवाही से इनका सेवन करने पर लोग मसल-लॉस की समस्या से जूझ सकते हैं।
वे ओजेम्पिक-फेस नामक व्याधि का भी सामना कर सकते हैं, जिनमें चेहरा झुर्रियों से भर जाता है। तब इंस्टाग्राम के फिल्टर भी आपको खूबसूरत नहीं दिखा सकेंगे। दवाएं लेना बंद करो तो भूख पहले से ज्यादा भड़क उठती है और आप ज्यादा वेट-गेन कर लेते हैं। याद रखें, जीवन में शॉर्टकट्स नहीं होते हैं। हर चीज मेहनत मांगती है। अनुशासन भले किसी ट्रिलियन-डॉलर कम्पनी का नाम न हो, लेकिन एक अच्छा जीवन बिताने के लिए आज भी इससे मूल्यवान और कुछ नहीं है!
- लाखों की तादाद में समोसा और गुलाब-जामुन प्रेमी भारतीय वजन घटाने वाले इंजेक्शनों को आजमाने वाले हैं। तो क्या अब ‘कम खाओ, ज्यादा चलो’ की जगह ‘खूब खाओ और इंजेक्शन लगाओ’ का युग आ गया है? बिलकुल नहीं।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)
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चेतन भगत का कॉलम: वजन घटाने के लिए कोई जादू की छड़ी मौजूद नहीं है

