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चेतन भगत का कॉलम: काम में ‘इनोवेटिव’ होने के लिए थोड़ा आराम भी जरूरी है Politics & News

चेतन भगत का कॉलम:  काम में ‘इनोवेटिव’ होने के लिए थोड़ा आराम भी जरूरी है Politics & News

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3 दिन पहले

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चेतन भगत, अंग्रेजी के उपन्यासकार

एक तरफ उद्योग-जगत के दिग्गज हैं, जो युवाओं से सप्ताह में 70 घंटे काम करने का आग्रह कर रहे हैं। दूसरी तरफ, अर्न्स्ट एंड यंग (ईवाय) की एक 26 वर्षीय कर्मचारी की वर्कलोड से हुई मृत्यु ने आक्रोश पैदा कर दिया है। दोनों पक्षों के अपने-अपने समर्थक हैं।

‘अधिक काम’ करने की हिदायत देने वालों का मानना ​​है कि युवा होने का मतलब है कड़ी मेहनत करना, करियर बनाना और देश के लिए योगदान देना। उनके अनुसार, ‘वर्क-लाइफ बैलेंस’ कमजोर लोगों के लिए है। जब आप कंपनी के मुनाफे में ज्यादा योगदान दे सकते हैं तो अच्छी नींद या सेहत की क्या जरूरत है?

जिस ईवाय कर्मचारी की वर्कलोड से मृत्यु हुई, उसने सीए परीक्षा पास की थी, जिसे कुछ प्रतिशत लोग ही पास कर पाते हैं, और वह भी कई असफल प्रयासों के बाद। फिर उसे एक प्रतिष्ठित बहुराष्ट्रीय कम्पनी में एक डिमांडिंग जॉब में धकेल दिया गया।

उसके माता-पिता के अनुसार वह देर रात तक काम करने के बाद घर लौटती थी तो उसे और काम दे दिया जाता था। सीए होने के नाते, उसके काम में सम्भवतः हजारों पन्नों के दस्तावेजों को पढ़कर रिपोर्ट तैयार करना शामिल था। यह काम का कभी न खत्म होने वाला पहाड़ है।

बात केवल अकाउंटेंट्स की ही नहीं है। हमने हाल ही में आरजी कर हॉस्पिटल का भयानक मामला देखा, जहां युवा डॉक्टर 36 घंटे की शिफ्ट में बिना सोए काम कर रहे थे। आईटी मैनेजर, इंवेस्टमेंट-बैंकर, कंसल्टेंट्स, सेल्सपर्सन, मीडिया प्रोफेशनल्स- ये कुछ और उदाहरण हैं, जिनका काम कभी खत्म नहीं होता। और इस सब में, अगर किसी जूनियर कर्मचारी पर काम का बोझ बढ़ जाता हो, तो उसे क्या करना चाहिए?

मुझे एक इंवेस्टमेंट-बैंकर के रूप में कई साल पहले की घटना याद है। मैं एक खनन कंपनी पर क्रेडिट ड्यू डिलिजेंस करने के लिए ऑस्ट्रेलिया गया था। मैं फाइनेंस मैनेजर के साथ मीटिंग सेट करना चाहता था। उन्होंने कहा कि उनकी आखिरी मीटिंग दोपहर 3:30 बजे की थी क्योंकि शाम 4:30 बजे- चाहे कुछ भी हो- वे घर के लिए निकल जाते हैं। और अपना समय होने पर वे अपनी सेल्फ-ड्राइविंग बोट में बैठकर चले भी गए।

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दफ्तर की इमारत स्वान नदी के ठीक बगल में थी, जो पर्थ से होकर गुजरती है। वे कभी भी अपना काम घर पर नहीं ले जाते थे। और जिस खनन कंपनी के लिए वे काम करते थे, वह ठीक चल रही थी। जबकि हांगकांग में बैंकिंग की अपनी नौकरी के दौरान हम सप्ताह में कई दिन रात 10 बजे तक काम करते थे।

ऐसी ही कार्य-संस्कृति भारत में भी प्रचलित है। जूनियर कर्मचारी अकसर अपने सीनियर के जाने से पहले घर नहीं जाते। सीनियर अपने से और सीनियर्स के घर जाने का इंतजार करते हैं। नतीजा यह रहता है कि हर कोई देर तक ऑफिस में बैठकर यह दिखाने की कोशिश करता है कि वे काम के प्रति कितने समर्पित हैं।

रिमोट-वर्क तकनीक ने चीजों को और पेचीदा बना दिया है। जो उपकरण जीवन को आसान बनाने के लिए बनाए गए थे, उनका उपयोग अब यह सुनिश्चित करने के लिए किया जा रहा है कि आप काम के लिए हमेशा उपलब्ध रहें और तुरंत प्रतिक्रिया दें।

विडम्बना यह है कि इससे भारतीय कंपनियां दुनिया की कंपनियों की तुलना में अधिक उत्पादक, कुशल या लाभ कमाने वाली नहीं बन गई हैं। किसी भी कंपनी में वास्तविक सम्पदा-निर्माण विजन और इनोवेशन से होता है। इसके लिए रचनात्मकता और स्वतंत्रता की आवश्यकता होती है। लोगों को नए विचारों के बारे में सोचने के लिए पर्याप्त खाली समय की भी जरूरत है।

भारतीय कंपनियों में सबसे बड़ी समय बर्बाद करने वाली चीजों में से एक है- मीटिंग्स। ईमानदारी से कहें, क्या किसी मीटिंग ने वैसा कुछ हासिल किया है, जिसे ग्रुप में एक मैसेज से हासिल नहीं किया जा सकता था? लेकिन नहीं, कॉर्पोरेट्स को मीटिंग्स पसंद हैं, क्योंकि वे मैनेजर्स के अहंकार को संतुष्ट करती हैं।

भारतीय कंपनियां इनोवेशन को भी नापसंद करती हैं। इसलिए जूनियर कर्मचारियों को खुश, रचनात्मक और स्वतंत्र मानसिक स्थिति में रखने का कोई प्रयास नहीं किया जाता। अगर आप जूनियर कर्मचारियों को उनके हक का आधा वेतन दे सकें और उनसे दो लोगों का काम करवा सकें, तो एक भारतीय मैनेजर इसे अपनी बड़ी सफलता के रूप में देखता है।

भारतीय कंपनियों का प्रतिस्पर्धी लाभ- विशेष रूप से सेवा क्षेत्र में- लगभग हमेशा ‘चीप-लेबर’ ही होता है। कॉर्पोरेट्स में अपना अस्तित्व कायम रखने के लिए ऐसे में बहुत सारे कर्मचारी ‘एलबीडीएन’ की नीति अपनाने लगे हैं, जिसका मतलब है- ‘लुक बिज़ी, डु नथिंग!’ (ये लेखक के अपने विचार हैं)

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