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कौशिक बसु का कॉलम: विकास के बावजूद जनता तानाशाही बर्दाश्त नहीं करती है Politics & News

कौशिक बसु का कॉलम:  विकास के बावजूद जनता तानाशाही बर्दाश्त नहीं करती है Politics & News

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17 घंटे पहले

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कौशिक बसु विश्व बैंक के पूर्व चीफ इकोनॉमिस्ट

इधर हमारी सुर्खियों में ‘सी’ से शुरू होने वाला जो शब्द काफी चर्चा में आया, वह है- ‘सेंसस’ यानी जनगणना। खबर है कि सरकार 2021 में होने वाली जनगणना अब करवाने की तैयारी कर रही है। इस खबर के मद्देनजर हमें एक व्यापक वास्तविकता की जांच करने की जरूरत है। यह अंग्रेजी के ‘सी’ अक्षर से ही शुरू होने वाले तीन और शब्दों से संबंधित है।

ये ‘थ्री सी’ ‘कास्ट’ (जाति), ‘कोलीशन’ (गठबंधन) और ‘कॉन्स्टीट्यूशन’ (संविधान) से बनते हैं। एक दशक तक तो इन तीनों की अनदेखी की जाती रही। हिंदी पट्टी की जाति-आधारित पार्टियों का पतन हो रहा था और नरेंद्र मोदी के उत्कर्ष को पिछड़ी (ओबीसी) तथा निचली जातियों के प्रति भाजपा की प्रतिबद्धता का प्रमाण बताया जा रहा था।

भाजपा ने बड़ी संख्या में ओबीसी उम्मीदवार खड़े किए, जिससे देश को एक ओबीसी प्रधानमंत्री, एक दलित राष्ट्रपति और उसके बाद एक जनजातीय राष्ट्रपति मिले। कांग्रेस ने भारत के गैर-कुलीन तबकों को कभी केवल एक दशक के अंदर इतना व्यापक और शक्तिशाली प्रतिनिधित्व नहीं दिया था। मोदी युग की भाजपा ने जाति और निचले वर्गों के मसलों को अपने चुनावी बक्से में बंद कर दिया। लेकिन अब समय का चक्र बदल रहा है।

जाति की ओर वापसी को समझना है तो देखिए कि उच्च प्रशासनिक सेवाओं में ‘लेटरल इंट्री’ यानी सीधी नियुक्ति के चलन को रद्द करने का फैसला किस तेजी से किया गया। इस चलन के तहत पिछले पांच वर्षों में 63 अफसरों को नियुक्त किया गया।

इनका विरोध हुआ तो उसकी उपेक्षा की गई। लेकिन अब, विपक्षी नेताओं, खासकर राहुल गांधी के कुछ ट्वीट के बाद ही ऐसी नियुक्तियों पर फौरन रोक लगा दी गई। भाजपा के विचारकों का निष्कर्ष है कि पिछले चुनावों में पार्टी को यूपी, राजस्थान और महाराष्ट्र में जो झटके लगे, उसकी मुख्य वजह यह थी कि अनुसूचित/पिछड़ी जातियों के वोटों का जो पुराना, व्यापक गठजोड़ है, वह फिर से मुस्लिम वोटों के साथ आ मिला।

भाजपा यह कभी नहीं चाहेगी कि विपक्ष इस मुद्दे को उछाल कर और मजबूत बने कि भाजपा और हिंदुत्ववादी तत्व केवल ऊंची जातियों के कुलीन तबकों को खुश करना चाहते हैं, यानी सभी हिंदुओं को नहीं।

‘सीधी नियुक्ति’ का चलन वापस लौटेगा लेकिन पूर्व-निर्धारित कोटे के तहत। इससे इसका मकसद ही बेमानी हो जाएगा और ‘सोच-विचार करके चुनने’ का वह विकल्प खत्म हो जाएगा, जिसका इस्तेमाल कांग्रेस, गैर-भाजपाई गठबंधनों और जनता सरकार (1977-79) तक ने किया था।

इसलिए, जनगणना के मामले में प्रगति पर गहरी नजर रखने की जरूरत होगी। तथ्य यह है कि कोविड से पहले भी जनगणना मशीनरी को तैयार नहीं किया जा रहा था। व्यापक धारणा यह है कि सरकार समय काटना चाहती थी। आम चुनाव के करीब 10 महीने पहले सरकार ने नए ‘जनगणना भवन’ का काफी शोर-शराबे के साथ उद्घाटन किया।

इस भवन को आप नई दिल्ली के मानसिंह रोड पर मशहूर ताज महल होटल के पास देख सकते हैं। यह नया फैन्सी ‘भवन’ तो तैयार हो रहा था, मगर जनगणना कब शुरू होगी, इसकी कोई भनक नहीं लग रही थी।

व्यापक तौर पर यह स्वीकार कर लिया गया था कि भाजपा ब्रिटिश काल की दशकीय जनगणना की परंपरा जारी रखने के पक्ष में नहीं थी। उसके लिए उपयुक्त समय वह था, जब संसदीय चुनाव क्षेत्रों के परिसीमन की अगली समयसीमा पूरी हो रही हो।

अलग-अलग राज्यों, खासकर तटवर्ती राज्यों, आर्थिक-सामाजिक दृष्टि से प्रगतिशील राज्यों तथा हिंदी पट्टी वाले राज्यों में जनसंख्या वृद्धि के स्वरूपों में भारी अंतर की वजह से परिसीमन को इतना विभाजनकारी मामला माना जाता है कि कोई उसे छूना नहीं चाहता। परिसीमन जब भी होगा, ज्यादा जन्मदर वाले राज्यों की सीटें बढ़ जाएंगी और जनसंख्या वृद्धि पर रोक लगाने वाले राज्यों की घट जाएंगी। इससे अस्थिरता, क्षेत्रीय प्रतिद्वंद्विता और केंद्र से दूर हटने के दबाव बढ़ेंगे।

यही वजह है कि तमाम सरकारें इस मसले से कन्नी काटती रही हैं। अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार आखिरी ऐसी सरकार थी। 2001 में उनकी सरकार ने ऐसा संविधान संशोधन पेश किया जिसके बाद परिसीमन को 25 साल के लिए टाल दिया गया। इसके बाद इसे जनगणना के बाद यानी 2026 में किया जाना था।

संभव है भाजपा तीसरी बार बहुमत में आने का इंतजार करना पसंद करती। यह इंतजार इस साल 4 जून को खत्म हो गया। संसद के पिछले सत्र में राहुल गांधी ने दावा किया था कि वे इसी संसद के तहत जातीय जनगणना करवाकर रहेंगे। आश्चर्य नहीं कि आपके पास जनगणना के जो पर्चे आएंगे, उनमें एक सवाल जाति से संबंधित भी हो।

अंत में, संविधान की बात। नए यथार्थ को प्रधानमंत्री तब कबूल करते दिखे, जब वे लोकसभा की पहली बैठक से पहले संविधान के आगे नतमस्तक हुए। चुनाव अभियान के दौरान तो अयोध्या से भाजपा के उम्मीदवार सहित अन्य भी संविधान-संशोधन के वादे कर रहे थे।

संविधान को एक ऐसे ग्रंथ का दर्जा दे दिया गया है जिसमें कोई बदलाव नहीं किया जा सकता, हालांकि यह ऐसा कभी नहीं था। अर्थव्यवस्था, समाज और राजनीति में बदलाव के साथ समय-समय पर इसमें संशोधन की जरूरत पड़ती है। अब तक इसमें 106 संशोधन हो भी चुके हैं।

अधिकतर संशोधन व्यापक सहमति के बाद किए गए थे। मोदी सरकार आम सहमति के बिना संविधान को छूना भी नहीं चाहेगी। इसलिए, ‘सी’ अक्षर से शुरू होने वाले उपरोक्त तीनों शब्द भाजपा को चौथे शब्द ‘कन्सेन्सस’ (आम सहमति) की ओर ले जाएंगे।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)

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