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कौशिक बसु विश्व बैंक के पूर्व चीफ इकोनॉमिस्ट
दुनिया की गरीब आबादी विकसित देशों में बढ़ते धुर-राष्ट्रवाद के तले दबती जा रही है। चूंकि विकासशील देशों को यूएन के सस्टेनेबल विकास लक्ष्यों को पाने के लिए हर साल 4 ट्रिलियन डॉलर के वित्तपोषण की आवश्यकता है, इसलिए यह बात और महत्वपूर्ण हो जाती है।
कई धनी देश अपना प्रतिरक्षा खर्च बढ़ाने के लिए अपने फॉरेन-एड बजट में तेजी से कटौती कर रहे हैं, जो विकासशील देशों की चुनौतियों को और जटिल बना रहा है। 2024 में वैश्विक प्रतिरक्षा खर्च 2.7 ट्रिलियन डॉलर तक पहुंच गया था, जो 2023 की तुलना में 9.4% अधिक है। एफडीआई भी घटा है। हालांकि इस तरह का निवेश कोई सहायता नहीं होती, लेकिन औद्योगिक विकास और नए रोजगार पैदा करने में यह बड़ी भूमिका निभाता है।
अमीर देशों में जाने का प्रयास करने वाले प्रवासियों की बढ़ती संख्या इस बात की ओर साफ इशारा है कि विकासशील दुनिया के अधिकांश हिस्से में हालात बदतर होते जा रहे हैं। दुर्भाग्य से संघर्ष, गरीबी और जलवायु परिवर्तन की आपदाओं से भागकर प्रवास करने वालों में से अधिकतर को सहानुभूति नहीं मिलती, बल्कि उन्हें असमानता और दुर्भावना का सामना करना पड़ता है। चरम-दक्षिणपंथ के उदय के चलते विकसित देशों की सहज प्रतिक्रिया यही होती है कि इन प्रवासियों को वापस भेज दिया जाए, यह जाने बिना कि इनका भविष्य क्या होगा और ये क्यों विस्थापित हुए?
जलवायु परिवर्तन के प्रति उदासीनता मानव जीवन को बनाए रखने वाली प्रणालियों के लिए खतरा बन रही है। यह विषमता भावी पीढ़ियों में भी बढ़ती दिख रही है। चुनौतियां इतनी बड़ी हैं कि उनका सामना कोई देश अकेला नहीं कर सकता।
आज विश्व बैंक में वोटिंग का 15.8% हिस्सा अमेरिका के पास है, जबकि विश्व की चौथी सबसे अधिक आबादी वाले देश इंडोनेशिया का हिस्सा महज 1.04% है। यह असमानता चौंकाने वाली है। जाहिर है कि वोटिंग की ताकत वित्तीय योगदान से संबंधित है।
जो देश जितना योगदान देता है, उसकी ताकत उतनी ही बढ़ती है। लेकिन यह ऐसा ही है जैसे कोई तर्क दे कि चुनावों में धनवान व्यक्ति को अधिक वोट मिलने चाहिए। ऐसी किसी भी धारणा को लोकतांत्रिक सिद्धांतों के प्रति सीधा-सीधा विश्वासघात मानना चाहिए। ऐसा नहीं है कि वैश्विक लोकतंत्र की सुरक्षा कोई आसान काम है, फिर भी अंतरराष्ट्रीय स्तर पर इस मुद्दे पर और अधिक ध्यान दिया जाना चाहिए।
खेदपूर्ण है कि स्पेन के सेवील में आयोजित इंटरनेशनल कांफ्रेंस ऑन फाइनेंसिंग फॉर डेवलपमेंट (एफएफडी4) सम्मेलन से दुनिया का सबसे ताकतवर लोकतांत्रिक देश अमेरिका हट गया। ट्रम्प प्रशासन ने खुले तौर पर सेवील प्रतिबद्धता की आलोचना भी की।
उसका दावा है कि यह अमेरिकी प्राथमिकताओं के अनुरूप होने में विफल रहा है। अमेरिका की गैर-मौजूदगी में भारत एक वैश्विक भूमिका का निर्वाह करने के लिए बेहतर स्थिति में है। दुनिया का सबसे बड़ा धर्मनिरपेक्ष, लोकतंत्र और गुटनिरपेक्ष आंदोलन का सह-संस्थापक होने के नाते भारत के पास जोखिम भरी भू-राजनीतिक स्थितियों को संभालने का दशकों का अनुभव है।
1950 और 1960 के दशक में नेहरू के नेतृत्व में भारत ने अकसर सैद्धांतिक रुख अपनाया था, फिर भले ही वह अमेरिका के हितों के प्रतिकूल हो। हालांकि यह अलग बात है कि बीते कुछ वर्षों में भारत ने लगभग पूरी तरह से खुद को ट्रम्प की विदेश नीति के अनुरूप कर लिया है। इससे भारत की वैश्विक छवि इस हद तक प्रभावित हुई है कि खुद ट्रम्प प्रशासन तक उसके समर्थन को हल्के में लेने लग गया।
एफएफडी4 सम्मेलन ने हालात को बदलने का मौका दिया है। इसकी भावना 1955 में इंडोनेशिया में हुई बांडुंग सम्मेलन की याद दिलाती है, जहां भारत ने विश्व की प्रभावी शक्तियों की छतरी तले रहने से इनकार करने वाले देशों को एकजुट करने में अग्रणी भूमिका निभाई थी।
भारत के पास भू-राजनीतिक स्थितियों को संभालने का अनुभव है। पर इसके लिए लोकतांत्रिक शासन को पुनर्जीवित करना, वंचित समुदायों का सम्मान बहाल करना और भावी पीढ़ी के अधिकारों की सुरक्षा सुनिश्चित करनी जरूरी है। (© प्रोजेक्ट सिंडिकेट)
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कौशिक बसु का कॉलम: भारत एक वैश्विक भूमिका के लिए बेहतर स्थिति में है