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- Kanika Mahajan’s Column When Women Work, The Country Will Also Move Forward Along With Them
4 घंटे पहले

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कनिका महाजन अशोका यूनिवर्सिटी में इकोनॉमी की एसोशिएट प्रोफेसर
जहां पूरी दुनिया में ही वर्कफोर्स में महिलाओं की भागीदारी पुरुषों से कम है, वहीं क्षेत्रीय असमानताएं भी बहुत ज्यादा हैं। मध्य-पूर्व और उत्तरी अफ्रीका सहित दक्षिण एशिया में सबसे बड़ा जेंडर-एम्प्लॉयमेंट गैप पाया जाता है।
भारत इसका उल्लेखनीय उदाहरण है। ग्रामीण क्षेत्रों में 25 से 60 वर्ष की आयु की महिलाओं में श्रम-बाजार (लेबर-मार्केट) भागीदारी दर 1980 में 54% से 2017 में 31% तक गिर गई है। ये आंकड़े नेशनल सैम्पल सर्वे (1980) और पीरियोडिक लेबर फोर्स सर्वे (2017) के हैं।
पिछले 5 वर्षों में यह फिर से 50% पर आ गई है। शहरी क्षेत्रों में गिरावट कम नाटकीय थी- 26% से 24% तक। उसके बाद 2022 में यह बढ़कर 30% हो गई। इस वृद्धि के लिए नियमित वेतन वाली नौकरियों के बजाय स्वरोजगार (मुख्य रूप से कृषि में) अधिक जिम्मेदार है।
इसके बावजूद भारत की महिलाओं की ओवरऑल वर्कफोर्स भागीदारी दर अभी भी उसके जैसी ही आय और शैक्षिक-स्तर वाले देशों से पीछे है। जहां पुरुषों की रोजगार दर में स्थिरता बनी हुई है, वहीं लैंगिक-विभेद अभी भी व्यापक है।
जब अधिक संख्या में महिलाएं काम करने निकलती हैं तो इससे देश को आर्थिक लाभ होता है और यह अच्छी तरह से दर्ज किया जा चुका है। यही कारण है कि भारत के नीति-निर्माता अब इस दिशा में काम करने के लिए उत्सुक हैं।
अनुमानों के मुताबिक वर्कफोर्स में महिलाओं की भागीदारी दर में मात्र 10 प्रतिशत की वृद्धि से भारत की जीडीपी में 16 प्रतिशत तक की बढ़ोतरी हो सकती है। वास्तव में, पूरी दुनिया में ही महिलाओं की रोजगार-दरों में सुधार से वैश्विक जीडीपी में 12 ट्रिलियन डॉलर की वृद्धि हो सकती है।
महिलाओं को श्रम बाजार में प्रवेश के लिए प्रोत्साहित करने के लिए नीति-निर्माताओं को सबसे पहले यह समझना होगा कि भारत में महिलाओं की वर्कफोर्स में कम भागीदारी क्यों है। शुरुआती रिसर्च सप्लाई-साइड की बाधाओं की एक शृंखला की ओर इशारा करते हैं, जैसे आय और शिक्षा के बीच यू-शेप्ड संबंध, घरेलू श्रम का असमान विभाजन (विशेष रूप से बच्चों और बुजुर्गों की देखभाल में) और सामाजिक मानदंड, जो महिलाओं को घर से बाहर काम करने के लिए हतोत्साहित करते हैं।
विवाह के लिए गैर-कामकाजी महिलाओं को प्राथमिकता देने, सीमित गतिशीलता, अपर्याप्त कौशल-प्रशिक्षण और कार्यस्थल व सार्वजनिक स्थानों पर सुरक्षा-संबंधी चिंताओं के कारण भी समस्या और बढ़ जाती है। मातृत्व-अवकाश और चाइल्डकेयर सुविधाओं की कमी के कारण भी काम के अवसर सीमित हो जाते हैं।
हालांकि इनमें से कई बाधाओं की जड़ घर-समाज में है, लेकिन सरकारें इस दिशा में महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकती हैं। इसका एक तरीका निर्यात-उन्मुख उद्योगों का समर्थन करना है। जहां सप्लाई-साइड की बाधाएं मध्य-पूर्व, उत्तरी अफ्रीका और दक्षिण एशिया में अर्थव्यवस्थाओं को प्रभावित करती हैं, वहीं बांग्लादेश जैसे देश में निर्यात-संचालित क्षेत्रों की बढ़ती मांग के कारण महिलाओं की रोजगार-दर में वृद्धि हुई है। यह दक्षिण-पूर्व एशियाई देशों का भी अनुभव रहा है कि निर्यात-केंद्रित मैन्युफैक्चरिंग से श्रम बाजार में महिलाओं का प्रवेश बढ़ता है।
इसमें इतिहास भी मूल्यवान अंतर्दृष्टि प्रदान करता है। अमेरिका में 100 वर्षों के अंतराल में महिला रोजगार दर नाटकीय रूप से बढ़ी। 1890 में यह 5% से कम थी, तो 1990 में 60% से अधिक हो गई। द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान महत्वपूर्ण मोड़ आया था, जब श्रम की कमी के कारण पारंपरिक रूप से पुरुष-प्रधान नौकरियों में भी महिलाओं को अधिक प्रवेश मिला।
मातृत्व लाभ अधिनियम और पोश एक्ट जैसे अच्छे इरादों वाले नियम महिलाओं को काम पर रखने की लागत भी बढ़ाते हैं, जिससे अनजाने में बाधाएं उत्पन्न होती हैं। अगर चाइल्डकेयर सुविधाएं स्तरहीन हैं या होस्टल्स सुरक्षा सुनिश्चित करने में विफल रहते हैं तो वर्कफोर्स में महिलाओं की भागीदारी भी कम ही रहेगी।
इसके अलावा, भारत में कौशल-कार्यक्रमों को प्रमुख शहरों के बाहर बहुत कम सफलता मिली है। जहां पुरुषों को ही नौकरी पाने में संघर्ष करना पड़ता है तो महिलाओं को वर्कफोर्स में शामिल करना और चुनौतीपूर्ण हो जाता है। (© प्रोजेक्ट सिंडिकेट)

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