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- N. Raghuraman’s Column Why Can’t There Be Healthy Chaat Classes In Schools And Colleges?
4 घंटे पहले
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एन. रघुरामन, मैनेजमेंट गुरु
ये दो तरफा प्रोग्राम है। यह युवाओं के बीच न सिर्फ खाने-पीने की सेहतमंद आदतों के प्रति बड़ा बदलाव ला रहा है, बल्कि अगर वे इसमें भविष्य निर्माण करना चाहते हैं, तो बड़ा बिजनेस अवसर भी दे रहा है।
4 अक्टूबर को कर्नाटक के युवा सशक्तिकरण व खेल विभाग ने चाट तैयार कराने का अपने तरह का पहला एक सप्ताह लंबा ट्रेनिंग प्रोग्राम लॉन्च किया है- यह चटपटी डिश किसी के भी मुंह में पानी ला सकती है।
इसमें लगभग 45 स्टूडेंट्स को प्रशिक्षण दे रहे हैं और यह 9 अक्टूबर तक चलेगा। इसका लक्ष्य युवाओं को सशक्त बनाना और कर्नाटक के विविध पारंपरिक स्नैक्स को लोकप्रिय बनाना है।
यह कार्यक्रम युवाओं के सामने खाने के ज्यादा पौष्टिक विकल्प उजागर करने का एक प्रयास है, जिन्हें विज्ञापनों से आम तौर पर जंक फूड की तरह लुभाया जाता है।
उनके मेन्यू में कर्नाटक के ग्रामीण इलाकों की लोकप्रिय चाट भी है, जो आमतौर पर बेंगलुरु जैसे शहरों में दिखाई नहीं देती। इनमें गिरमिट और कॉर्नफ्लैक्स से बने शेंगा मसाला, हासी खारा चूड़ा मसाला (दो तरह का) के अलावा और भी कई आइटम थे।
इससे मुझे एक आइडिया आया कि क्यों न हमारे स्कूल और कॉलेज लड़के-लड़कियों दोनों को इस पाककला को बढ़ावा देने के लिए महीने के हर दूसरे और चौथे शुक्रवार या शनिवार को एक क्लास आयोजित कर सकते हैं।
शेफ जैसा महसूस करने के लिए स्टूडेंट्स एप्रन पहन सकते हैं। यह लड़के-लड़कियों को एक ऐसी गतिविधि के लिए साथ लाएगा, जहां खाना पकाने की गतिविधि में लैंगिक समानता केवल महिलाओं के प्रति नहीं है। यह अलग-अलग कुकिंग क्लास हो सकती हैं। आग, स्टोव, तवा इस क्लास का हिस्सा नहीं होंगे।
बाजार में उपलब्ध रेडीमेड सामान लाकर मिला सकते हैं, शायद इसमें थोड़ा टमाटर, प्याज, हरा धनिया, हरी मिर्च काटने की जरूरत पड़े और कभी-कभी सलाद भी अच्छी तरह टुकड़ों में काट सकें, इसके अलावा स्वादानुसार नमक, मिर्ची पाउडर और चाट मसाला डाल सकते हैं।
अगर कोई सलाद के आइटम्स चाहता है, तो अतिरिक्त स्वाद के लिए मिला सकते हैं। स्कूल और कॉलेज की कैंटीन या बाहर से भी उबले आलू का आसानी से इंतजाम किया जा सकता है। कुकिंग एक कला है और लड़के-लड़कियां दोनों इसमें महारत हासिल कर सकते हैं।
नौजवानों के दिमाग में रचनात्मकता बढ़ाने के अलावा यह यकीनी तौर पर उनकी तैयारी में प्रोटीन और कार्ब्स की समझ बढ़ाएगा और धीरे-धीरे वे खाने-पीने की सेहतमंद आदतों की तरफ शिफ्ट हो जाएंगे। बच्चे खाने को उसी तरह देखें, जैसे हमारे पूर्वज देखा करते थे, उसके लिए एक ही तरीका है कि बच्चों को इन जंक फूड से बाहर निकालें, जो कि उन्हें मोटा और बीमार बना रहा है।
स्कूलों में क्रिकेट मैदान, स्क्वैश और टेनिस कोर्ट के साथ-साथ गार्डन के लिए भी कुछ जगह होनी चाहिए, जहां जैविक सब्जियां उगाई जा सकें या कम से कम शहरी स्कूल उन्हें कृषि फार्म दिखाकर जैविक खेती का महत्व समझा सकते हैं।
मिट्टी में हाथ गंदे करने के बाद बच्चे खाने को मात्रा की मानसिकता से नहीं देखेंगे बल्कि विवेकपूर्ण तरीके से देखेंगे। उनके मन में एक अलग तरह का सम्मान उभरेगा जो बिना खाद और रसायन के होगा। हेल्दी फूड से उनका कम उम्र में परिचय कराने से उनका उसके प्रति सम्मान बढ़ेगा, जो भी वो खा रहे हैं।
हम जैसे ज्यादातर बच्चे स्कूल की साइंस लैब में किए प्रयोग भूल गए होंगे, लेकिन वो गैरजरूरी चीजें और छोटे-छोटे काम कभी नहीं भूलेंगे, जो किचन नाम की उस लैब में अपनी मां की मदद करते हुए हमने किए थे।
अपनी रसोई में हमारे व्यवहार को लेकर मां का सख्त रवैया होने से हमारे मन में अप्रत्यक्ष रूप से खाने के प्रति बड़ा सम्मान पैदा हुआ, जो कि आधुनिक दिनों में नदारद नजर आता है।
फंडा यह है कि स्कूल या कॉलेज में किचन को लैब का हिस्सा बनाकर अगली पीढ़ी को जंक फूड से दूर रहने में मदद मिलेगी, जो कि अभी उन्हें नुकसान पहुंचा रहा है। स्कूल और कॉलेज मालिकों को इस दिशा में सोचना चाहिए क्योंकि यह समाज के प्रति उनकी एक सेवा होगी।
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एन. रघुरामन का कॉलम: स्कूल-कॉलेज में हेल्दी चाट क्लास क्यों नहीं हो सकतीं!