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- N. Raghuraman’s Column Emotions Are More Involved In Goods Than Price
एन. रघुरामन मैनेजमेंट गुरु
साल 2014 में जब मैं मुंबई मेट्रो के साथ संबद्ध था, तो मुझे एक बुजुर्ग व्यक्ति मिले, जिनका छाता अंधेरी स्टेशन पर कहीं खो गया था और इसे वापस पाने के लिए वह खोया-पाया विभाग के सामने आठ घंटे तक इंतजार करते रहे थे।
उन्होंने अपने छाते के बिना जाने से इंकार कर दिया था। स्टेशन स्टाफ इसके बदले नया छाता खरीदकर देने को भी तैयार था, पर उन्होंने इंकार कर दिया। वह जिद पर अड़े थे कि उन्हें किसी भी कीमत पर वही छाता चाहिए।
मालूम चला कि यह छाता उनके बेटे का दिया आखिरी तोहफा था, भारतीय सेना में अपनी सेवाएं देते हुए उसने देश के लिए अपनी जान न्योछावर कर दी थी। तब मैंने तत्कालीन सीईओ रहे कर्नल सुभोदय मुखर्जी से बात की, जो खुद सेना में थे और उन्हें ये दिल को छू लेने वाली कहानी सुनाई। वह अब दिवंगत हो चुके हैं।
तब उन्होंने सारे सुरक्षा कर्मियों को उस खोए छाते की तलाश में लगा दिया और अंततः उनकी टीम इसका पता लगाने में कामयाब रही, लेकिन इसमें आठ घंटे लग गए। उस दिन छाता मिलने के बाद आपको उन बुजुर्ग का चेहरा देखना चाहिए था। उनके आंसू रुकने का नाम ही नहीं ले रहे थे।
उन्होंने छाते को अपनी छाती से ऐसा चिपका लिया, मानो अपने बेटे को गले लगा रहे हों। और मैंने यह गिनना ही छोड़ दिया कि न जाने कितनी बार उन्होंने जा-जाकर वहां सबसे हाथ मिलाए और अपनी कृतज्ञता प्रकट की। वो दृश्य देखकर स्टेशन का पूरा स्टाफ भावुक हो उठा था और वहां से गुजरते राहगीर खामोशी से खड़े होकर इसे ढूंढने वाली टीम के लिए तालियां बजा रहे थे।
इसी तरह की एक कहानी तीन महीने पहले सामने आई। एक बुजुर्ग जहां भी जाते, अपने साथ हथेली के आकार की डॉल साथ रखते, ये चार इंच से ज्यादा बड़ी नहीं थी। ये कुछ ऐसा ही था जैसे फिल्म दीवार में अमिताभ बच्चन का किरदार, विजय कुली का बिल्ला हमेशा साथ रखता था, जो उसने बंबई पोर्ट पर कुली का काम करते समय पहना था और इसे अपना गुड लक चार्म मानता था।
ऐसा इसलिए था क्योंकि एक बार उसके नाम की गोली उसे न लगकर बिल्ले पर आकर लगी थी और उसकी जान बच गई थी, तब से वह हमेशा अपने पास रखने लगा। ठीक इसी तरह उन बुजुर्ग सज्जन को भी लगता था कि वह डॉल उनकी लकी चार्म है और उन्हें भरोसा था कि वह डॉल ही उन्हें सुरक्षित घर पहुंचाती है। पर दुर्भाग्य से चेन्नई एयरपोर्ट मेट्रो स्टेशन पर उनकी यह डॉल कहीं खो गई।
उन्होंने एक भावुक कहानी के साथ सोशल मीडिया पर अपना दुख बयां किया। और पूरी चेन्नई मेट्रो टीम ने छह घंटे में उस छोटी डॉल का पता लगाया और उन्हें लौटाई। ये दो घटनाक्रम मुझे हाल ही में तब याद आए, जब मालूम चला कि आंध्रप्रदेश का एक 23 वर्षीय सॉफ्टवेयर इंजीनियर काम के पहले ही दिन मेट्रो ट्रेन में लैपटॉप भूल गया। ये उसके नए ऑफिस ने एक दिन पहले ही दिया था। स्टेशन से बाहर आते ही उसे गलती का अहसास हुआ और शिकायत दर्ज कराने वह अंदर भागा।
आमतौर पर मेट्रो ट्रेन में खोए सामान टर्मिनल स्टेशनों पर बिना दावे के रह जाते हैं, लेकिन उसके लैपटॉप का कोई रिकॉर्ड नहीं था। जब उसके ऑफिस ने नौकरी से निकालने की धमकी दी, तब उसने पुलिस में शिकायत दर्ज कराई। जांच में पता चला कि एक यात्री ने ये लैपटॉप बैग उठाया और मेन सेंट्रल मेट्रो स्टेशन से बाहर निकल गया। जांचकर्ताओं ने प्रवेश व निकासी द्वारों से सीसीटीवी फुटेज से उसका पता लगाया, जिससे उसके प्रस्थान का समय पता चला।
टिकट के डेटा से पता चला कि उसने ट्रैवल कार्ड इस्तेमाल किया था। फिर बैक-एंड सर्च में उजागर हुआ कि उसका कार्ड एक गाड़ी से लिंक है, जो उसने दोस्त से उधार ली थी और आठ महीने पहले मेट्रो की पार्किंग में खड़ी कर दी थी। पुलिस गाड़ी के पंजीकृत पते पर पहुंची और लैपटॉप ले जाना वाला व्यक्ति और लैपटॉप भी वहां मिल गया।
फंडा यह है कि अगर आपको कहीं भी कोई खोया हुआ सामान मिले, तो याद रखें कि इसकी कीमत से ज्यादा किसी की भावनाएं इससे जुड़ी हो सकती हैं। कृपया करके इसे लौटा दें, वे हमेशा आपको आशीर्वाद देंगे और आपको जिंदगी में एक नया दोस्त भी मिल जाएगा।
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एन. रघुरामन का कॉलम: सामान के मामले में कीमत से ज्यादा भावनाएं जुड़ी होती हैं