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- N. Raghuraman’s Column Truth Always Wins, But Unfortunately It Has No Timeline!
5 घंटे पहले

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एन. रघुरामन, मैनेजमेंट गुरु
‘कब तक, सर? आप क्या चाहते हैं कि हम कब तक घर पर बैठे रहें और रात को बाहर भी न जाएं?’ उस नौजवान की आवाज में बहुत दर्द था। मैं एक यूनिवर्सिटी में पैरेंट मीटिंग को संबोधित कर रहा था और वह नौजवान कॉलेज जाने वाले अपने पैरेंट्स के साथ उस प्रोग्राम में आया था।
उसका यह सवाल तब उठा जब मैंने कहा कि इस साल पास होने वाले युवा जब भी नाइट आउट के लिए जाएं या कोई काम हाथ में लें, तो उन्हें सावधान रहना चाहिए। खीझता से भरे हुए उसके इस प्रश्न का जवाब देने के लिए मैंने दर्शकों से एक कहानी सुनाने की अनुमति मांगी, जिसमें 38 साल पहले एक गलत काम हुआ था और सच पिछले हफ्ते ही सामने आया।
ये कहानी 68 वर्षीय पीटर सुलिवन की है, जिन्होंने यूके की जेल में 38 साल एक ऐसे अपराध के लिए बिताए जो उन्होंने कभी किया ही नहीं। उन्हें पिछले मंगलवार को रिहा किया गया! हां, ये कहानी इस बात का प्रमाण है कि अंततः सत्य की जीत होती है, लेकिन कभी-कभी इसकी कीमत 38 साल की कामकाजी जिंदगी होती है।
अगस्त 1986 में, 21 वर्षीय डायने सिंडल एक पब की शिफ्ट करके घर लौट रही थीं और एक पेट्रोल स्टेशन की ओर जा रही थीं। आरोप था कि इसी दौरान पीटर भी नशे में एक अन्य पब से निकला और उसके हाथ में क्रोबार (लोहे की रॉड) थी, बताया गया कि एक डार्ट मैच में हारने के बाद उसने दिनभर जमकर शराब पी थी।
उधर, सिंडल की मार-मारकर हत्या कर दी गई और उसके साथ यौन उत्पीड़न हुआ। इस हत्याकांड की क्रूरता के कारण हत्यारे की खोज की तरफ पूरे देश का ध्यान था। पीटर को संदेह के आधार पर गिरफ्तार किया गया। उसने तब हत्या की बात कुबूली, पर बाद में इसे वापस ले लिया। अब लोग कहते हैं कि ये पुलिस की यातना के कारण हो सकता है।
वह अपने केस को रिव्यू करने के लिए लगातार आवेदन पर आवेदन देता रहा, अंततः 2021 में उसकी सुनवाई हुई, जब उसने अपने डीएनए टेस्ट की मांग की, क्योंकि केस में डीएनए सैंपल संभालकर रखे हुए थे। आखिरकार डीएनए मेल नहीं खाया और पुलिस ने केस फिर से ओपन किया और 260 से अधिक लोगों की जांच की। यूके पुलिस प्रमुख ने दावा किया कि वे अपराधी को पकड़ने के लिए प्रतिबद्ध हैं। जबकि पीटर ने कहा, “मैं न तो गुस्से में हूं और न मन में कड़वाहट है। मुझे इस दुनिया में मिले अस्तित्व का अधिकतम लाभ उठाना है।”
न्याय में देरी का ऐसा ही एक मामला, इस सोमवार को चेन्नई में भी सामने आया। चेन्नई नगर निगम परिवहन विभाग के ड्राइवर डी. प्रसाद ने 27 जून 2012 को ड्यूटी में सौंपी पांच ट्रिप पूरी कीं और बस में खराबी का कहकर बस डिपो में खड़ी कर दी। बाद में उन्हें एक अन्य बस सौंपी गई, जिसमें भी खराबी थी- इसका स्टीयरिंग व्हील क्षतिग्रस्त था और ड्राइवर की सीट भी टूटी थी।
बस की इस हालत में छठवीं ट्रिप पूरी करते हुए डी प्रसाद ने बस से नियंत्रण खो दिया और फ्लाईओवर की रेलिंग से टकराते हुए 25 फीट नीचे गिर गई और 36 लोग घायल हो गए। कुछ लोगों ने कहा कि प्रसाद फोन का उपयोग कर रहे थे, जबकि प्रशासन ने उन्हें लापरवाही से गाड़ी चलाने का आरोप लगाया और उन्हें निलंबित कर दिया।
प्रसाद ने अपने निलंबन को शहर की श्रम अदालत में चुनौती दी और 2016 में पुनः नियुक्त हुए, लेकिन इसकी कीमत उन्हें दिल का दौरे के रूप में चुकानी पड़ी और वे कर्ज में डूब गए। प्रसाद कहते हैं, “सबसे बड़ा दर्द यह था कि मुझे सुने बिना दोषी ठहराया गया और उन्होंने कभी पुराने लॉग शीट की जांच नहीं की, जिसमें बस की मरम्मत का उल्लेख था।”
लापरवाही का कोई सबूत नहीं मिलने के बाद चेन्नई की एक अदालत ने पिछले हफ्ते उन्हें बरी कर दिया। अदालत ने पाया कि पुराने खराब रखरखाव वाले बसों के बेड़े में खराबी थी। पर याद रखें उन्होंने 13 साल की अपनी क्वालिटी लाइफ गंवा दी।
फंडा यह है कि सत्य की जीत निश्चित है, लेकिन यह कोई टाइमलाइन देने में असफल होता है। इसलिए अपने दैनिक जीवन में सावधान रहना बेहतर है, खासकर जब आप युवा हैं। साथ ही बेवजह के जोखिम उठाने से भी बचना चाहिए।
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एन. रघुरामन का कॉलम: सच हमेशा जीतता है, पर दुर्भाग्य से इसकी कोई टाइमलाइन नहीं होती!