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एन. रघुरामन का कॉलम: माइक्रो लर्निंग एप्स उपयोगी हैं, किन्तु ज्ञान का विकल्प नहीं Politics & News

एन. रघुरामन का कॉलम:  माइक्रो लर्निंग एप्स उपयोगी हैं, किन्तु ज्ञान का विकल्प नहीं Politics & News

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5 घंटे पहले

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एन. रघुरामन, मैनेजमेंट गुरु

इस हफ्ते मैं ट्रेन से, मध्यप्रदेश के बीना में बीपीसीएल फैक्ट्री विजिट पर गया था। मेरे सामने वाली सीट पर एक पेशेवर युवा बैठा था, पहले कुछ घंटे वह कुछ ज्यादा नहीं बोला। उसने मुस्कराकर अभिवादन किया और मैंने भी वैसे ही जवाब दिया। वह ‘डूम स्क्रॉलिंग’ में व्यस्त था, जिसका मतलब वह अपने फोन पर अंतहीन ऑनलाइन कंटेंट स्क्रॉल किए जा रहा था।

मैंने भी अपने ज्ञान को ताजा करने के लिए एक पुरानी किताब फिर से पढ़नी शुरू की। पुरानी किताब- सर जॉन विटमोर की कोचिंग फॉर परफॉर्मेंस- का जाहिराना तौर पर रंग फीका पड़ गया था। अचानक उसने मेरी ओर देखा और कहा ‘सर, क्या यह वही ‘ग्रो मॉडल’ है, जो कोचिंग के लिए महत्वपूर्ण टूल जैसा है और बातचीत एवं विकास को आसान बनाने के लिए एक स्ट्रक्चर्ड अप्रोच मुहैया कराता है?’

मैंने किताब बंद की और अचम्भे से उसकी ओर देखा। मैंने खुद से कहा ‘वाह, इतनी छोटी उम्र में इसने बहुत पढ़ा है।’ इस विचार के चलते मेरी उस युवा में उत्सुकता जागी और मैंने कहा, ‘आपने कब ये पुस्तक पढ़ी? दरअसल, मैंने इस पुस्तक को दो दशक पहले खरीदा था।’ उसने तपाक से कहा ‘आप इस पुस्तक का चौथा संस्करण पढ़ रहे हो।

मैंने इसके छठे संस्करण के कुछ चुनिंदा समरी प्वाइंट पढ़े हैं।’ और उसने अपने मोबाइल में दिखाते हुए पुस्तक के छठे संस्करण में जोड़े नए कॉन्सेप्ट को दोहराया। उसने इसी यात्रा में माइक्रो लर्निंग एप पर सर्फिंग करते हुए इस पुस्तक के बारे में जानकारी हासिल की थी।

तब मुझे एहसास हुआ कि उसके जैसे कई लोग खुद में सुधार की लहर पर सवार हैं, एक नया वर्ग उन माइक्रो लर्निंग एप से सीखता है, जो किताब का निवालाभर सारांश देकर 15 मिनट में किसी को स्मार्ट बनाने का दावा करते हैं। मैंने कहा, ‘निश्चित ही ये मात्रात्मक तौर पर अधिक जानकारी लेने का बढ़िया तरीका हो, किंतु गुणवत्ता के संदर्भ में नहीं।’ और बिना किसी बहस के उसने भी इस पर सहमति दी।

उसने प्रतिउत्तर में कहा, ‘आपकी पीढ़ी को छोड़कर कोई भी गहरे ज्ञान में रुचि नहीं रखता और ये माइक्रो लर्निंग एप कम से कम हमें बोर्ड मीटिंग जैसे नाजुक मौकों से पार पाने में मदद करते हैं, जहां किसी को भी ज्ञान का प्रदर्शन करना होता है। ये एप पूरी किताब पढ़ने से पहले उपयोगी प्रीव्यू देते हैं।’ और वो तर्क में सही था।

एमएनसी में काम करने वाले व्यस्त एग्जीक्यूटिव को 260 पन्नों की भारी भरकम किताब क्यों पढ़नी चाहिए, जिसे मैं पढ़ रहा था? वो जो कर रहा था, उसमें स्मार्ट था। धीरे-धीरे हम एक दूसरे के बारे में और जानने लगे। वह किताब के बारे में मेरी बातों को पूरे ध्यान से सुनने लगा। लेकिन जब मैंने उससे पूछा कि ‘अगर तुम्हें समरी रुचिकर लगती है तो क्या वास्तव में तुम किताब खरीदकर विषय को और गहराई से समझना चाहते हो? यहां पर उसने शर्माते हुए स्वीकार किया कि ‘नहीं, मैं ऐसा नहीं करता।’

यहीं पर मुझे लगा कि माइक्रो लर्निंग एप में कोई बात तो है। जब आपके पास ध्यान देने के लिए महज 3-4 मिनट ही हों, ऐसे में ये आपको अधिक उपलब्धि का अहसास करा सकता है। यदि कंटेंट सही से गढ़ा हो, तो यह एक समय पर दिमाग में बहुत अधिक सूचनाएं आने से पड़ने वाले भार को भी कम कर सकता है।

खासकर उस युवा जैसे व्यस्त एग्जीक्यूटिव्स को त्वरित उपलब्धि का अहसास भी कराता है, जो देखकर, सुनकर व तार्किक तरीके से सूचनाओं को ग्रहण करना पसंद करते हैं। एप्लाइड साइकोलॉजी एंड ह्यूमन डेवलपमेंट विभाग के प्रोफेसर्स कहते हैं कि तात्कालिक उपयोग के लिए माइक्रो लर्निंग एप अच्छे हैं।

ये साबित हुआ है कि किसी एक विषय पर एक किताब के सारांश से दूसरे पर कूदने की तुलना में लंबे समय का अध्ययन अधिक समग्रता वाली समझ व ज्ञान विकसित करता है। यह आपको तत्काल बौद्धिक समृद्धता का अहसास कराता है। लेकिन इन प्रोफेसरों का कहना है कि ‘विशेषत: जो लोग लंबे समय तक ढेर सारे एप का इस्तेमाल करते हैं, उन्हें जरूरत के वक्त महत्वपूर्ण सूचना की कमी का अहसास होता है।

फंडा यह है कि माइक्रो लर्निंग एप्स उपयोगी हैं, लेकिन तभी, जब उन्हें ज्ञान के विकल्प के बजाय ज्ञान में सहायक के तौर पर उपयोग किया जाए।

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