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- N. Raghuraman’s Column Do Not Differentiate Between Permanent And Contract Employees In Terms Of Training
एन. रघुरामन, मैनेजमेंट गुरु
शनिवार रात 11.30 बजे जब मैं अमरावती एक्सप्रेस 12112 में चढ़ा तो मैंने तय किया कि सुबह 5.30 बजे मुंबई के दादर स्टेशन पहुंचने तक मैं आराम से सोऊंगा। चार बर्थ में से तीन पर पहले से लोग सो रहे थे, मैं बिना लाइट चालू किए चुपचाप अंदर गया, चादर बिछाई और अपनी बर्थ पर सोने जा रहा था। तभी टीसी आया और उसने मेरा नाम पूछा, मैंने एक हाथ से दरवाजा सरकाया क्योंकि दूसरे हाथ में तकिया थी।
ज्यों ही लाइट अंदर पड़ी, मुझे पता चला कि तकिए का कवर साफ नहीं था। इसलिए मैंने टीसी से पूछा कि क्या वो फर्स्ट क्लास के कोच अटेंडेंट को भेज सकते हैं। वह हां कहकर चला गया। उस केबिन के पीछे बने अटेंडेंट रूम के डोर को खटखटाने की आवाज आई, लेकिन दरवाजा नहीं खुला।
टीसी वापस आया और यह कहते हुए माफी मांगी कि अटेंडेंट कहीं गया होगा और मैं बाद में उससे संपर्क करता हूं। उसने मुस्कराते हुए गुड नाइट बोला और चला गया। उसका व्यवहार मुझे अच्छा लगा और मैं अटेंडेंट का इंतजार करता रहा, जो कि नहीं ही आया। मैंने टॉवल से तकिया को कवर किया और सो गया।
मुंबई के पड़ोसी जिले ठाणे आने से पहले ठीक सुबह 4.30 बजे दो यात्री जोर से अटेंडेंट रूम का दरवाजा पीट रहे थे। इससे सबकी नींद खुल गई। वे यात्री प्रथम श्रेणी डिब्बे के नहीं थे। चूंकि ट्रेन में एक से दूसरी क्लास के डिब्बे में जाने का रास्ता खुला हुआ था, इसलिए अन्य क्लास में यात्रा कर रहे यात्रियों ने सुरक्षा के लिए अटेंडेंट के केबिन में अपना सूटकेस रख दिया था।
जाहिर था कि उन्होंने इसके लिए पैसे दिए थे, जिसका मुझे बाद में पता चला कि हर सूटकेस के लिए 250 रुपए दिए गए थे।मालूम चला कि वे यात्री यूएसए जा रहे थे और कुछ कीमती सामान ले जा रहे थे। उनके पास बड़े-बड़े सूटकेस थे, इसलिए उन्हें लगा कि कहीं ऐसा न हो कि आधी रात को वे किसी डकैती का शिकार हो जाएं।
अमेरिका जाने वाले लोग आम तौर पर 23-23 किलो के दो सूटकेस ले जाते हैं, क्योंकि उन्हें 46 किलो चेकइन में और सात किलो हैंड बैगेज में ले जाने की इजाजत होती है।
इस बीच ठाणे स्टेशन आ गया और ट्रेन वहां से भी निकल गई और अटेंडेंट केबिन में फंसे हुए उनके सूटकेस के कारण वो यात्री घबरा रहे थे। अब ट्रेन दादर स्टेशन की ओर बढ़ रही थी। इस सबमें 20 मिनट और चले गए। जब आगे 7 मिनट तक और दरवाजा पीटना जारी रहा, तो अटेंडेंट केबिन से ऐसा मुंह बनाते हुए बाहर निकला कि मुझे परेशान करने की तुम्हारी हिम्मत कैसे हुई।
उसे अहसास तक नहीं था कि कैसे उसकी गहरी नींद ने दो यात्रियों को गंभीर परेशानी में डाल दिया था और पूरी बोगी की नींद खराब कर दी थी। ऐसा पहली बार हुआ, जब मैंने देखा कि कोच अटेंडेंट बाहर आकर लोगों से टिप नहीं मांग रहा था, क्योंकि उसे छोड़कर पूरी बोगी के लोग जाग रहे थे और उसकी पोल खुल गई थी। ट्रेन वाकई साफ थी।
हथियारबंद पुलिस वाले लगातार पेट्रोलिंग कर रहे थे, जिससे यात्री आश्वस्त थे कि बिना किसी चिंता के सो सकते हैं। ट्रेन लगभग समय पर ही चल रही थी। लेकिन वह सब अच्छा प्रदर्शन, कॉन्ट्रैक्ट पर रखे हुए उस कर्मचारी के कारण धुंधला पड़ गया। रेलवे भोजन से लेकर कपड़े धोने तक कई सेवाओं को आउटसोर्स करता है और इन आउटसोर्स कर्मचारियों से जुड़ी शिकायतों को लेकर वे लोग कान बंद कर लेते हैं।
ज्यादातर समय उनकी बंद सर्विस बंद रहती है या महज एक दिखावा होती है, लेकिन अगर कोई शिकायतकर्ता अपनी शिकायत पुरजोर तरीके से जारी रखता है, तो पता नहीं कैसे ये लोग किसी तरह दूसरे नाम से दूसरी ट्रेन का कान्ट्रैक्ट ले लेते हैं। ऐसी कंपनियां जहां स्थायी और अनुबंध वाले कर्मचारी होते हैं, उन्हें अपनी मानक परिचालन प्रक्रिया (एसओपी) इतनी परफेक्ट बनानी चाहिए, जिससे ये सर्विस लेने वाला व्यक्ति इन दो तरह के कर्मचारियों में फर्क न कर सके।
फंडा यह है कि किसी भी सेवा प्रदाता को अपनी पूरी वर्कफोर्स के लिए एक प्रशिक्षण कार्यक्रम की योजना बनानी चाहिए, अन्यथा कुछ स्थायी कर्मचारियों का किया अच्छा काम भी कुछ कॉन्ट्रैक्चुअल कर्मचारियों के दोयम दर्जे के काम से ग्राहक अनुभव को खराब कर सकता है।

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एन. रघुरामन का कॉलम: ट्रेनिंग के मामले में स्थायी और संविदा कर्मचारियों में भेद न करें