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एन. रघुरामन का कॉलम: जीवन में अनकही अपेक्षाओं का होना अच्छा है या बुरा? Politics & News

एन. रघुरामन का कॉलम:  जीवन में अनकही अपेक्षाओं का होना अच्छा है या बुरा? Politics & News

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15 मिनट पहले

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एन. रघुरामन, मैनेजमेंट गुरु

होटल के अंदर मौजूद उस रेस्तरां में सभी टेबलों पर मोमबत्तियां जल रही थीं और एक कोने में लाइव म्यूजिक चल रहा था। जैसे ही मैं बैठा, मुझे अपने पीछे गाना सुनाई दिया- “यारा सीली-सीली, बिरहा की रात का जलना…।’

बिल्कुल सीली-सीली गाने के अर्थ की ही तरह मोमब​त्तियां भी कभी धीमी जलतीं तो कभी अचानक चमक उठतीं, क्योंकि वे ऊपर एयर कंडीशनर के वेंट से आ रही हवा के साथ खुद को एडजस्ट कर रही थीं। मोमबत्ती की रोशनी की तरह वेटर का चेहरा भी तब चमक उठा, जब उसने मुझसे थोड़ी दूर बैठे एक जोड़े को बिल दिया।

यही वो पल था जब उसे पता चलना था कि उसे कितनी टिप मिलेगी। यह उसकी अनकही अपेक्षा थी। ग्राहक ध्यान से बिल को देख रहा था और जब उसकी नजर सर्विस चार्ज पर पड़ी, तो उसने वेटर से इसके बारे में पूछा।

वेटर ने समझाया लेकिन उसका चेहरा वैसे ही धुंधला हो गया, जैसे एसी की हवा में मोमबत्ती की रोशनी मंद हो जा रही थी, क्योंकि तब तक उसे अंदाजा हो गया था कि ग्राहक उसे टिप नहीं देगा। और ठीक उसी समय गाना अपने अंतिम अंतरे के साथ समाप्त हो रहा था- “बाहर उजाला है… अंदर वीराना, यारा सीली-सीली…।’ ग्राहक सेवा-शुल्क सहित अपनी राशि का भुगतान करके चला गया और वेटर ने मोमबत्ती बुझा दी। वह उसे घूरकर देख रहा था क्योंकि उसके लिए कोई टिप नहीं छोड़ी गई थी।

लाइव स्टेज से गायक ने अगला गाना शुरू किया- “मेरे महबूब, कयामत होगी, आज रुसवा तेरी गलियों में मोहब्बत होगी…’ और मुझे सचमुच लगा कि वेटर अपनी बेहतरीन सेवा से ग्राहक की गली (पढ़ें दिल) में तो प्रवेश नहीं कर पाया, उलटे अपने दिल में उनको रुसवा (बदनाम) कर दिया।

फिर मेरी नजरें उसी वेटर का पीछा करती रहीं, ताकि उसका चमकता हुआ चेहरा भी देख सकूं। लेकिन जिस भी टेबल पर उसने सेवाएं दीं, दुर्भाग्य से उस रात उसे कुछ ऐसे सख्त ग्राहकों का सामना करना पड़ा, जिन्हें लगा कि सर्विस चार्ज और टिप एक ही हैं और जब तक मैं वहां से नहीं निकल गया, उसे टिप नहीं मिली।

उससे ठीक विपरीत वह वेटर था, जो मुझे सर्व कर रहा था। वह बैकग्राउंड में चल रहे गानों को लिप-सिंक कर रहा था और हमेशा खुश रहता था। उसकी मुस्कराहट दूसरों को भी मुस्कराने पर मजबूर करती थी। वह जिन पांच टेबलों पर सर्व कर रहा था, उनमें से तीन पर उसे टिप मिली। लेकिन बाकी दो जिन्होंने पैसे नहीं दिए, उनके लिए उसके मन में कोई बुरी भावना नहीं आई।

वह उन्हें छोड़ने के लिए दरवाजे तक गया। शायद वह मन ही मन कह रहा हो कि “दोबारा मत आना!’ लेकिन एक मुस्कराहट के साथ। वह खुश था और इसलिए उसके परोसे गए खाने में एक अलग स्वाद आ रहा था। वह ग्राहकों से पूछता रहता था, “क्या आपको खाना अच्छा लग रहा है, क्या मुझे शेफ को बुलाकर आपसे कोई खास निर्देश लेने के लिए कहना चाहिए?’

उसने कभी शेफ को नहीं बुलाया, लेकिन उसके शब्द सुकून देने वाले थे। इससे मुझे खुद से सवाल करने को मजबूर होना पड़ा कि जीवन में अनकही अपेक्षाएं रखना कितना अच्छा या कितना बुरा है? मुझे एहसास हुआ कि जीवन से अनकही अपेक्षाएं रखना बुरी बात नहीं, लेकिन अगर जीवन हमें उस पल वह नहीं देता जो हमने सोचा था, तो जीवन को कोसना नहीं चाहिए। जबकि दूसरा वेटर ठीक यही कर रहा था।

जब मैं वहां से निकल रहा था तो “चौदहवीं का चांद’ का यह गाना गाया जा रहा था- “होठों पे खेलती हैं तबस्सुम की बिजलियां, सजदे तुम्हारी राह में करती हैं कहकशां, दुनिया-ए-हुस्न-ओ-इश्क का तुम ही शबाब हो।’ मुझे एहसास हुआ कि आपके अच्छे शब्द (“तबस्सुम की बिजलियां’) आपके रास्ते को “कहकशां’ (आकाशगंगा) से चमका देते हैं और तब आपसे मिलने वाले सभी लोग “शबाब’ से भरे (युवा) हुए दिखते हैं।

फंडा यह है कि जब उम्मीदें पूरी न हों तो जीवन को सकारात्मक तरीके से बताएं कि “ऐ जिंदगी, मुझे पता है कि तुम्हारे पास मेरे लिए कुछ बेहतर है’ और देखें कि जीवन कैसे बदलता है और आपकी अपेक्षाएं पूरी करने लगता है।

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