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- N. Raghuraman’s Column: No Need For A ‘master Plan’ To Fill Life’s Blank Pages
एन. रघुरामन, मैनेजमेंट गुरु
वो नवरात्र मेला था। पानी-पूरी के स्टॉल पर सबसे ज्यादा भीड़ थी, उसके बाद घर के बने अचार और बेडशीट-पिलो केसेज की स्टॉल पर। लेकिन उस एक स्टॉल पर कोई नहीं था, एक भी नहीं। पहले तो मैंने सोचा कि वह बहुत बूढ़ा था और उसका सामान भी पुराने जमाने का था। उसके पास बेकार चीजों से बनाया कुछ था, जो सस्टेनेबिलिटी को बढ़ावा दे रहा था।
रिटायर्ड बैंक कर्मचारी होने के बावजूद वह समीप से गुजरते लोगों का ध्यान नहीं खींच पाया। शायद बैंक में रहते हुए कभी काउंटर पर ग्राहकों को नहीं संभाला होगा। वह धैर्यपूवर्क इंतजार कर रहा था कि कोई आकर उसके उत्पाद के बारे में पूछे।
फिर 12-14 साल की एक लड़की रुकी। उसने पूछा कि ‘ये ड्रेस किसके लिए हैं?’ उन्होंने मुस्कुराते हुए कहा, ‘पेट्स के लिए।’ उन्होंने यह भी बताया कि शाम को पेट्स के लिए फैंसी ड्रेस कॉम्पीटिशन है। उन्होंने पर्दों और दर्जी के बचे-खुचे कपड़ों के जरिए छोटे से लेकर बड़े डॉग्स और बिल्लियों के लिए भी ड्रेस तैयार की हैं।
लड़की मुस्कुराई, पेंट की जेब से फोन निकाला और अपने पेट डॉग की फोटो दिखा कर बोली- यह ल्हासा एप्सो ब्रीड है, जिसके बाल करीने से कटे हैं। उन्होंने पूछा, ‘मेल है या फीमेल?’ लड़की ने कहा, ‘फीमेल’, तो उन्होंने झुककर टेबल के नीचे से कार्टन से कुछ निकाला और बोले, ‘ये ड्रेस उसे प्रिंसेस बना देगी।’ उन्होंने ठीक वैसी ही ड्रेस पहने अपने डॉग की फोटो भी दिखाई। लड़की ने वादा किया कि वह पापा को लेकर चंद मिनट में लौटेगी और चली गई।
पांच मिनट बाद वे लौटे। बच्ची और बुजुर्ग के चेहरे पर आई खुशी महज बिक्री और खरीद से जुड़ी नहीं थी, हालांकि पापा का रिएक्शन थोड़ा अलग था- शायद खर्चे की वजह से। उनमें बातचीत हुई। पहली बार किसी वयस्क (बच्ची के पापा) ने उनके बनाए कपड़ों को छुआ था।
ड्रेस में नाक का डिजाइन, ऊपर बने लंबे कान देखकर पापा मुस्कुरा दिए और बोले ‘यह कितना चतुराई भरा डिजाइन है।’ उन्होंने तुरंत खरीद लिया। धीरे-धीरे उनके स्टॉल पर पेट ऑनर्स आने लगे। वे अनजान लोगों के पेट्स की कहानियां सुन रहे थे और उनको लगा कि जैसे वह उनके पड़ोसी हों। बाद में उन्होंने मुझे बताया कि छोटे-से बूथ में इतने सारे लोगों से जुड़ाव देखकर उन्हें हैरानी हुई।
एक महिला ने उन्हें बताया कि उनकी दादी पुराने पर्दों से रजाइयां सिलती थीं। एक रिटायर्ड टीचर ने बताया कि कैसे उन्होंने भाई की बेल-बॉटम पैंटों को नया कलेवर देना सीखा, जो साइकिल चलाते हुए फट जाती थीं। ज्यादातर लाेग वहां ठहरकर उन्हें अपनी कहानी सुनाते थे। हो सकता है कि उन्होंने दूसरों से बहुत कम बिक्री की हो।
स्टॉल का किराया चुकाने के बाद मुनाफा भी बहुत कम रहा हो, लेकिन उन्हें इसकी जरा भी परवाह नहीं थी। उनके लिए वे ग्राहक नहीं, दोस्त थे। हर कहानी, नटखट पेट्स को लेकर हर हंसी और साझा की गई स्टोरी- उस स्टॉल में सकारात्मकता ला रही थी। उस बुजुर्ग आदमी से मिलकर कोई भी वहां से उदास चेहरा लेकर नहीं गया।
उस बूथ ने मुझे एक सबक सिखाया, जिसका अर्थ कहीं अधिक व्यापक है। मुझे लगा कि उद्देश्य छोटी से छोटी और बेहद अप्रत्याशित जगहों पर भी मिल सकता है। किसे पता था कि क्राफ्ट्स से ढंकी एक फोल्डिंग टेबल, वो भी पुराने कपड़ों से बनी हुई- बेचने और खरीदने वालों को इतनी खुशी दे सकती है। वे शुरू में अजनबी थे, लेकिन पांच मिनट में ही बेचने वाला ग्राहक के पेट्स की समस्या का सलाहकार बन गया। शायद अगले मेले में उसे और अधिक कमाने का मौका मिले।
फंडा यह है कि रिटायरमेंट कोई खाली पन्ना नहीं है। बस, इतना-सा चाहिए कि कुछ अलग करने की कोशिश करो, खुद को उसमें शामिल करो और अपने अनुभव के जरिए उस खाली पन्ने को भरने दो।
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एन. रघुरामन का कॉलम: जिंदगी के खाली पन्ने को भरने के लिए ‘मास्टर प्लान’ की जरूरत नहीं है
