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- N. Raghuraman’s Column Where There Are Moral Stories, There Is No Need For ‘integrity Fee’
एन. रघुरामन, मैनेजमेंट गुरु
कई दशक पहले, मैं और मेरा कजिन किसी के पेड़ से ढेर सारे जामुन लेकर घर पहुंचे। हमारे नाना (जो कि तहसीलदार कार्यालय में दूसरे सबसे ताकतवर व्यक्ति थे) दरवाजे पर बैठे थे और उन्होंने पूछा, तुम्हारे हाथों में क्या है? फिर उन्होंने हमसे वो जामुन अपने पास रखवा दिए और अंदर जाकर पहले खाना खाने को कहा।
अगले 15 मिनट में हम नहाए क्योंकि पेड़ पर चढ़ने के कारण हमारे कपड़े गंदे हो गए थे, खाना खाया और लौट आए। हम उन अंकल को देखकर चौंक गए, जिनके घर से हम जामुन लाए थे। वे हमारे नाना के साथ बैठकर बातें कर रहे थे।
हमें लगा वो हमारे बारे में शिकायत कर रहे हैं, इसलिए हम दोनों में से किसी ने बाहर जाने की हिम्मत नहीं की। यह भांपकर कि हम छिपे हुए हैं, नाना ने हमें बुलाया और हम सिर झुकाए बाहर चले आए। वहां से गुजर रहे एक डाकिए को कहकर नाना ने उन अंकल को बुला लिया था। नाना जानते थे कि जामुन का पेड़ उनके घर में है।
हमने नमस्ते किया। अंकल ने भी हमारा अभिवादन स्वीकार किया। वे उठे, हमारे सिर को सहलाया और बिना कुछ कहे बाहर चले गए। हमने राहत की सांस ली। तब नाना ने हमें एक मेहनती, लेकिन गरीब लकड़हारे की कहानी सुनाई। लकड़हारा एक नदी किनारे पेड़ काट रहा था।
उसकी कुल्हाड़ी उसके हाथ से छूटकर पानी में गिर गई। वह बहुत परेशान था, क्योंकि वही उसकी आजीविका का एकमात्र साधन था। उसकी निराशा भरी पुकार सुनकर एक देवी प्रकट हुईं और पूछा कि उसे क्या चाहिए। उसने कोई दौलत मांगने के बजाय बताया कि उसने अपनी कुल्हाड़ी खो दी है। उसकी ईमानदारी देखकर देवी ने मदद की पेशकश की।
सबसे पहले उसे एक चमचमाती सोने की कुल्हाड़ी मिली। देवी ने पूछा, क्या यह तुम्हारी है? लकड़हारे ने कुल्हाड़ी की सुंदरता और कीमत के बावजूद जवाब दिया, नहीं। दूसरी बार उसे चांदी की कुल्हाड़ी मिली। देवी ने वही सवाल पूछा। लकड़हारे ने अपनी ईमानदारी पर अडिग रहते हुए फिर से मना कर दिया।
देवी बेहद प्रभावित हुईं और आखिरकार लकड़हारे को उसकी असली लोहे की कुल्हाड़ी वापस लौटा दी, जिसे लकड़हारे ने कृतज्ञतापूर्वक स्वीकार कर लिया। लेकिन देवी ने उसे सोने और चांदी की दोनों कुल्हाड़ियां देकर भी पुरस्कृत किया। लकड़हारा न केवल धन-संपत्ति, बल्कि ईमानदारी के गुण से भी समृद्ध होकर घर लौटा। नाना ने उन जामुनों के बारे में हमसे कभी बात नहीं की। लेकिन वो कहानी आज भी हमारे जेहन में ताजा है।
आज आप किसी भी बच्चे के पास जाकर कहें, ‘मैं तुम्हें एक कहानी सुनाता हूं’ और शुरू करें- ‘एक था राजा और एक थी रानी’ तो वो तुरंत कहेगा, ‘दोनों मर गए, खतम कहानी’, और भाग जाएगा। लेकिन हमारे जमाने में रोज ही कोई न कोई कहानी सुनाई जाती थी और उसकी शुरुआत हमेशा उसी पहले वाक्य से होती थी। लेकिन दूसरा वाक्य हमेशा ही ‘पीछे की बदल गई पूरी कहानी’ हुआ करता था। हमने किस दिन कैसा व्यवहार किया है, इसी के आधार पर हमारे बड़े हमें कोई न कोई कहानी सुनाते थे।
शनिवार को हम दोनों कजिन्स को यह कहानी याद आई और हम हंस पड़े क्योंकि डोनाल्ड ट्रम्प के अमेरिकी प्रशासन ने शुक्रवार को जनवरी 2026 से प्रभावी होने जा रहा 250 डॉलर (21,450 रुपए) का वीज़ा इंटेग्रिटी शुल्क लगा दिया है।
कुछ लोगों का कहना है कि यह शुल्क केवल कुछ शर्तों पर ही वापस किया जा सकता है, जिसमें वीज़ा की शर्तों का पूरा पालन और वीज़ा की समाप्ति के पांच दिनों के भीतर प्रस्थान शामिल है। याद रखें, यह हर आवेदक से उसके अच्छे व्यवहार के लिए सुरक्षा जमा राशि जमा करने के लिए कहने जैसा है। मुझे यह सोचकर डर लग रहा है कि क्या रेलवे और अस्पताल भी कल से रिफंडेबल इंटेग्रिटी शुल्क तो नहीं मांगने लगेंगे?
फंडा यह है कि हम अपनी महान नैतिक कहानियों को खत्म न होने दें। दूसरा वाक्य बदलें और अपने बच्चों को उनके जीवन के पहले 13 वर्षों तक हर रोज सोने से पहले नई, कल्पनाशील कहानियां सुनाएं, ताकि एक हाई इंटेग्रिटी वाली नई दुनिया उभरे और सरकारें इंटेग्रिटी फीस लगाने की हिम्मत न करें।
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एन. रघुरामन का कॉलम: जहां नैतिक कहानियां होगीं, वहां ‘इंटेग्रिटी फी’ की जरूरत नहीं