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- N. Raghuraman’s Column Don’t Worry, ‘gig’ Jobs Will Gradually Become ‘big’ Jobs
एन. रघुरामन, मैनेजमेंट गुरु
20 वर्षीय रमेश (बदला हुआ नाम) ने बाइक खरीदने के लिए अपने परिवार को लगभग धमका दिया था। परिवार ने उसे बाइक दिलाने के लिए बहुत संघर्ष किया। गृहिणी मां ने सोना गिरवी रख दिया, बढ़ई पिता ने कर्ज लिया और अपने इकलौते बच्चे की इच्छा पूरी की। वह कॉलेज जाता था, अलबत्ता वह पढ़ाई में बहुत अच्छा नहीं था।
लेकिन अचानक उसकी जिंदगी बदल गई। उसके पिता को काम पर बिजली का झटका लगा और कुछ समय तक अस्पताल में इलाज के बाद उनकी मृत्यु हो गई। इलाज में परिवार की छोटी-मोटी बचत भी खत्म हो गई। रमेश ने कॉलेज जाना बंद कर दिया क्योंकि उसे अपनी मां का भरण-पोषण करना था और घर का खर्च चलाना था।
औपचारिक शिक्षा पूरी न होने के कारण उसे अच्छी नौकरी नहीं मिल सकती थी। तब वही बाइक उसके काम आई। रमेश डिलीवरी बॉय बन गया और अचानक उसके व्यवहार में जिम्मेदारी का भाव आ गया। वह जब खाली होता तो काम पर लग जाता और जब उसे मां की देखभाल या कोई और काम होता तो काम से हट जाता।
सिर्फ रमेश ही नहीं, कई ग्रेजुएट और हुनरमंद लोग पैसों की जरूरत होने पर काम पर लग जाते हैं और जब दूसरी प्राथमिकताएं सामने आती हैं तो काम से हट जाते हैं। यही कारण है कि नीति आयोग के अनुसार देश के सैकड़ों शहरों में 77 लाख से ज्यादा कामगार ‘गिग’ इकॉनोमी से जुड़े हैं और 2029-30 तक इनकी संख्या 2.35 करोड़ तक पहुंचने की उम्मीद है।
चूंकि ‘गिग’ रोजगार लचीलापन देता है, अलग-अलग अवसर खोलता है, इसलिए ये कई शहरी लोगों के बीच पसंदीदा विकल्प बन रहा है। आज देख सकते हैं कि ‘गिग’ रोजगार में स्किल्ड जॉब्स का हिस्सा 47% है, हाई स्किल्ड का 22% और लो स्किल्ड का 31% है।
बहरहाल, पारंपरिक सरकारी नौकरी का आकर्षण अभी भी ज्यादातर लोगों- चाहे वो शहरी हों या ग्रामीण- के लिए कायम है, क्योंकि इससे रोजगार की सुरक्षा और सेवानिवृत्ति के उपरांत के लाभ मिलते हैं। ऐसा इसलिए है क्योंकि रमेश जैसे लोग अपने सहकर्मियों से उनके अनुभव सुनते हैं कि स्वास्थ्य संकट की स्थिति उनके लिए कितनी चुनौतीपूर्ण हो जाती है।
वे जानते हैं कि अगर उन्हें अभी किसी स्वास्थ्य सम्बंधी इमरजेंसी का सामना करना पड़े तो उनके पास इसके लिए कोई संसाधन नहीं हैं। रमेश के पिता के साथ जो हुआ, उस तरह के दृश्य आज भी उन्हें डराते हैं। और ये ही वो लोग हैं, जो नौकरियों सम्बंधी घोटालों का शिकार बनते हैं, क्योंकि उनका काम ही ऐसा है कि उन्हें रोज ही बिना रुके, तनाव से भरी दौड़ में शामिल होना पड़ता है।
1 फरवरी को इन कर्मचारियों को उम्मीद की पहली किरण तब नजर आई, जब उन्होंने केंद्र सरकार द्वारा उनके लिए पहचान-पत्र जारी करने और स्वास्थ्य बीमा के बारे में सुना। बजट में की गई ये घोषणा रमेश जैसों के लिए आश्वासन के रूप में आई है।
ऐसे कदम उन्हें पारंपरिक नौकरियों के पीछे भागने से रोकेंगे। आज इलाज का खर्च डरावना हो चुका है और सरकार से किसी भी तरह का स्वास्थ्य-लाभ मिलना गिग वर्करों के लिए एक बड़ी राहत होगी।
विशेषज्ञों का कहना है कि यह तो अभी शुरुआत है और समय के साथ सरकार ऐसी योजनाएं लागू करने के लिए भी बड़े पैमाने पर काम करेगी, जिससे ‘गिग’ वर्कर पेंशन के लिए भी योगदान कर सकेंगे।
दूसरी ओर ‘गिग’ वर्कर्स को भी समझना होगा कि वे स्वरोजगार जैसा कुछ कर रहे हैं और उन्हें छुट्टियां या वीकऑफ नहीं मिलेंगे। इसके बजाय उन्हें अपने काम के लिए कुछ लाभ जरूर मिलेंगे, जैसे डेप्रिसिएशन व बाइक पर खर्च।
रमेश ने सिर्फ एक गलती की कि उसने पढ़ाई छोड़ दी। गिग वर्कर्स को शिक्षा जारी रखनी चाहिए और समय के साथ कुशल बनना चाहिए। इससे उनकी ROTI (रिटर्न ऑन टाइम इन्वेस्टेड) गुणात्मक रूप से बेहतर होगी, जिसका मतलब होगा उतने ही समय के निवेश पर पहले से अधिक वेतन।
फंडा यह है कि समय के साथ ‘गिग’ रोजगार ‘बिग’ रोजगार बन जाएगा, क्योंकि यह युवाओं को खुद के दम पर काम करने की बड़ी आजादी देता है। वहीं अप्रत्यक्ष रूप से यह आजादी जिम्मेदारी भी लेकर आएगी, जैसे कि वह रमेश के कंधों पर लाई थी।
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एन. रघुरामन का कॉलम: चिंता न करें, ‘गिग’ रोजगार धीरे-धीरे ‘बिग’ रोजगार बन जाएगा