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- N. Raghuraman’s Column ‘Happiness’ And ‘giving’ Are Two Sides Of The Same Coin
एन. रघुरामन, मैनेजमेंट गुरु
चार साल का एक बच्चा अपने पिता और अंकल के साथ बॉम्बे के वीटी स्टेशन के पास पीएम रोड पर चल रहा था और वहीं खुली गाड़ी में बैठे हुए सज्जन गरीब बच्चों को टॉफी बांट रहे थे और वो बच्चा वह टॉफी चाहता था। वीटी अब सीएसएमटी स्टेशन है और शहर भी मुंबई हो गया है।
उन दिनों में बहुत सारे लोग उस सिग्नल पर रुकते थे, क्योंकि तब बंबई में चंद सिग्नल थे। उस बच्चे के पिता और अंकल, दोनों ने उसे गाड़ी की ओर जाने नहीं दिया, जाहिर था कि वो नहीं चाहते थे कि वो जरूरतमंद बच्चों के हक का सामान ले। पर गाड़ी के अंदर बैठे उस भद्र पुरुष की नजरें, उस बच्चे से मिलीं।
उन्होंने चुपचाप गाड़ी का दरवाजा खोला, बच्चे के पास आए, उसे मुट्ठी भर चॉकलेट दी और हाथ मिलाया। अब वो बड़े उसे मना नहीं कर सके और बच्चे को थैंक्यू बोलने के लिए कहा क्योंकि वो सज्जन और कोई नहीं बल्कि स्वयं जेआरडी टाटा थे और वो बच्चा मैं था।
ये कहानी मेरे पिता कई बार मुझे बता चुके हैं और अपने पत्रकारिता करिअर के दौरान टाटा मुख्यालय ‘बॉम्बे हाउस’ को कवर करते हुए मैं ये कहानी जेआरडी टाटा को सुना रहा था, तब वहीं खड़े रतन टाटा भी ये कहानी बहुत ध्यान से सुन रहे थे।
फिर कुछ सालों बाद जब मैंने रतन टाटा को एक रेडियो इंटरव्यू में सुना तो मेरी आंखों में आंसू आ गए। इसमें उनसे पूछा गया था, “सर, आपको जीवन में सबसे ज्यादा खुशी मिली हो, तबका आपको क्या याद है?’ उन्होंने तुरंत कहा, “मैं अपने जीवन में खुशियों के चार स्टेज से गुजरा हूं और अंततः जाकर मैंने सच्ची खुशी का मतलब समझा।
पहली स्टेज में धन-संपत्ति इकट्ठी करना है। लेकिन उस स्टेज में मुझे वो खुशी नहीं मिली, जो मैं चाहता था। फिर दूसरी स्टेज आई, जिसमें मूल्यवान सामान का संग्रहण था। पर मुझे अहसास हुआ कि इन चीजों का असर अस्थाई था। फिर तीसरी स्टेज में बड़े प्रोजेक्ट से मिलने वाली खुशी थी।
देश की और एशिया की सबसे बड़ी स्टील फैक्ट्री का मालिक होने के बावजूद मुझे वो खुशी नहीं मिली, जिसकी मैंने कल्पना की थी। और फिर आई चौथी स्टेज। जब मेरे एक मित्र ने 200 दिव्यांग बच्चों के लिए व्हीलचेयर खरीदने के लिए कहा। व्हीलचेयर खरीदने के बाद उसने आग्रह किया कि मैं उसके साथ चलूं और खुद ही उन्हें ये वितरित करूं।
वहां मैंने इन बच्चों के चेहरे पर खुशी की एक अलग-सी चमक देखी। मैंने देखा कि वो सारे बच्चे व्हीलचेयर पर बैठकर ऐसे मस्ती कर रहे थे और यहां-वहां जा रहे थे, जैसे किसी पिकनिक वाली जगह पर पहुंच गए हों। जब मैं जाने लगा, तो उनमें से एक बच्चे ने मेरा पैर जकड़ लिया।
मैंने धीरे-धीरे अपना पैर छुड़ाने की कोशिश की, पर वो बच्चा मेरे चेहरे की ओर देखता रहा और पैर को मजबूती से पकड़े रहा। मैं झुका और उस बच्चे से पूछा, आपको कुछ और चािहए क्या? उस बच्चे ने जो जवाब दिया, उसने न सिर्फ मुझे हिलाकर रख दिया बल्कि जीवन के प्रति मेरा नजरिया पूरी तरह बदलकर रख दिया। उस बच्चे ने कहा, मैं आपका चेहरा हमेशा याद रखना चाहता हूं, ताकि जब आपसे स्वर्ग में मिलूं, तो आपको पहचान सकूं और एक बार फिर से धन्यवाद दे सकूं।’
दान (गिविंग) न सिर्फ उनके डीएनए में था, बल्कि रतन टाटा ने इसे अपनी आदत बनाया। बॉम्बे हाउस में स्ट्रे डॉग्स के लिए आसरा देने की बात हो या पशुओं के लिए या कैंसर रोगियों के लिए सबसे बड़ा अस्पताल बनाना, ऐसी कई कहानियां हमने सुनी होंगी। पर ऐसी सैकड़ों कहानियां होंगी, जो शायद हमसे से कई लोगों ने मिस कर दी होगी, जहां उन्होंने युवा स्टार्टअप व कंपनियों के लिए न सिर्फ अपना मूल्यवान समय व सलाह दी होगी, बल्कि नौजवानों को जिंदगी शुरू करने के लिए उन कंपनियों में अपना पैसा निवेश किया होगा। वह हमेशा नए-नए विचारों के साथ भरे युवाओं से घिरे रहते थे, जिनकी उन्होंने हमेशा न केवल पैसे से बल्कि अपने ज्ञान से भी मदद की।
फंडा यह है कि क्या आप इससे इंकार कर सकते हैं कि खुशी उस सिक्के का दूसरा पहलू है, जिसे ‘गिविंग’ कहते हैं? अगर आपको इस पर भरोसा है, तो आपके पास जो भी है, उसे देने में यकीन करें, यहां तक कि एक सच्ची मुस्कान भी दूर तक जाती है।
एन. रघुरामन का कॉलम: ‘खुशी’ और ‘देना’ एक ही सिक्के के दो पहलू हैं