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एन. रघुरामन का कॉलम: क्या हम वाकई ‘वैल्यू एनालिसिस’ का अर्थ जानते हैं? Politics & News

एन. रघुरामन का कॉलम:  क्या हम वाकई ‘वैल्यू एनालिसिस’ का अर्थ जानते हैं? Politics & News

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5 घंटे पहले

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एन. रघुरामन, मैनेजमेंट गुरु

15 अगस्त की छुट्टी के कारण मेरे पास काम का दबाव नहीं था, तो शाम को सोचा कि घर के पास वाले नगर निगम के बगीचे में टहलकर आऊं। व्यवस्थित लगे पैदल ट्रैक पर टहलते हुए मैंने एक बच्ची को पिता से कहते सुना कि मुझे गार्डन ले चलो। मुझे नहीं पता कि पिता ने इस सवाल को किस तरह लिया, पर मैं रुककर उनकी बातचीत ध्यान से सुनने के लिए मजबूर हो गया।

पिता ने कहा, ‘ये गार्डन ही तो है।’ उसने कहा ‘नहीं, ये नहीं है। गार्डन तो अच्छी तरह व्यवस्थित होते हैं, उनमें सब जगह घास होती है, हर कोनों पर फूल होते हैं, सिर्फ पैदल चलने की जगह ही नहीं होती। बेतरतीबी से उग आई इन घास-फूस के झाड़ियों से मुझे डर लगता है। मैं कहां दौड़ूं और पार्क में कहां खेलूं?’

आठ-दस बरस की उस बच्ची के बुद्धिमानी भरे तर्क के बाद पिता ने तपाक से कहा, ‘बेटा, मैं पर्स लाना भूल गया।’ उसने भी झट से कहा, ‘मैं आपसे कुछ नहीं मांगूंगी, हम सिर्फ जाएंगे, खेलेंगे और वापस चलकर घर आ जाएंगे।’ पिता-पुत्री की जोड़ी निकलने ही वाली थी कि उनसे बात करने के लिए मैं उनके पास गया।

पवई (मुंबई) के उस इलाके में पास ही में एक नामी बिल्डर के अच्छी तरह व्यवस्थित पार्क तक जाने में हमें 15 मिनट लगे, इस बीच कई मुद्दों पर हमारी बात हुई और उनमें एक बात मूल्य (रुपए-पैसे बनाम उस उत्पाद की अहमियत)को लेकर हमारी समझ या नासमझी को लेकर थी।

उन्होंने स्वीकार किया उनके जैसे पिता अक्सर बगीचों में नहीं जा सकते हैं, जहां पैरों को सुकून पहुंचाने वाली घास होती है, रंगीन फूलों के पौधे होते हैं, जिसके चलते वेंडर्स बगीचे के बाहर आसपास दुकान लगा लेते हैं और उनके खाने-पीने की चीजें निम्न वर्ग के लिए बहुत महंगी है।

उन्होंने हताशा में कहा, नए उत्पाद पेश करने के बजाय आज के प्रीमियम ब्रांड्स ने पुराने जाने-माने और सस्ते उत्पादों को शानदार पैकेजिंग से उन्हें ज्यादा अपीलिंग बनाया है। स्वाद नहीं बदला है और कुछ मामलों में कमतर ही हुआ है, लेकिन स्टॉक कीपिंग यूनिट साइज भी कम हुआ है (हर उत्पाद का वजन), पर महज लुभावनी पैकेजिंग के कारण इसे ऊंची कीमतों पर बेचते हैं।

एक उदाहरण देते हुए उन्होंने कहा, जब मेरे पिता छोटे थे, तब एक चिक्की (गुड़ की पट्टी) महज 3 पैसे में आती थी। (एक वर्ग इंच 5 एमएम मोटी) जब मैं बच्चा था, तो वह 10 पैसे की आती थी। लेकिन जब मेरा बच्चा हुआ तो यह 40 रुपए की आने लगी। जबकि हर चिक्की की मोटाई भी 3 एमएम रह गई है। इन दिनों वो आपको एक पीस भी नहीं देते।

आपको 100 ग्राम या 200 ग्राम का पैकेट लेना होगा। मेरी बच्ची इसी वजह से ज्यादा खा लेती है। उसने ऐसे दर्जन भर सामान गिनाए जैसे संतरे की गोली और बुड्ढी के बाल।’ आगे उन्होंने कहा कि आइस कैंडी और संतरे का रस, जो 10 पैसे में एक गिलास आता था, हाल तक वह पेप्सिकोला और रसना के रूप में दिखाई देता था, पर अब अचानक गायब हो गया।

इस तरह 3 पैसे का उत्पाद जो घर में बनता था या कुटीर उद्योग से आता था, धीरे-धीरे छोटे या मध्यम उद्योगों ने उसकी जगह ले ली, फिर अब सॉफ्ट ड्रिंक बनाने वाली वैश्विक कंपनियों ने जगह ले ली। बढ़ती आय, आकांक्षी और प्रयोगात्मक खरीदारी के कारण लोगों के उपभोग का तरीका बदला है, जिसने अकेले कमाने वाले परिवारों पर दबाव डाला है जैसे कि वो पिता जिनसे मैं मिला।

बड़े स्तर पर विज्ञापन में बेहतर उत्पादन के बारे में दिखाते हैं, जिससे ब्रांड्स अपनी ऊंची कीमतें जायज ठहराते हैं। एक ही व्यक्ति के हाथ में पैसा अलग-अलग तरह से सोच पर असर डालता है, इससे वो सोचता है कि अब उपलब्ध उत्पाद कई मामलों में बेहतर है जिसे वह अपनी जवानी के दिनों में थोड़ी-सी पॉकेट मनी से ले लेता था।

फंडा यह है कि आपको नहीं लगता कि कहीं न कहीं रुपयों-पैसों की ताकत ने हमसे ‘मूल्य का आकलन’ (वैल्यू फॉर मनी) करने वाली सोचने-समझने की ताकत छीन ली है और हम अब चीजें दूसरे कारणों से खरीदते हैं? मैं नहीं समझ पा रहा हूं कि वो क्या कारण है? अगर आपको पता है, तो मुझे बताएं।

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