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एन. रघुरामन का कॉलम: क्या जीपीएस हमारे दिमाग के नेविगेशन सेंटर्स को क्षति पहुंचा रहा है? Politics & News

एन. रघुरामन का कॉलम:  क्या जीपीएस हमारे दिमाग के नेविगेशन सेंटर्स को क्षति पहुंचा रहा है? Politics & News
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43 मिनट पहले

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एन. रघुरामन, मैनेजमेंट गुरु

“जब तुम घाटकोपर (मुंबई) में पश्चिम से पूर्व की ओर जाते रेलवे ब्रिज को पार करोगे, तो एकदम बाईं ओर एक वनवे टर्न दिखेगा, मुझे लगता है तुम्हें पता होगा।’ मेरी पत्नी को डॉक्टर के यहां ले जा रहे ड्राइवर को मैं ये बता रहा था। ड्राइवर ने हामी में सिर हिलाया।

मैं आगे बताने लगा, “उसी वन-वे पर 500 मीटर आगे तुम राइट टर्न लेना और फिर 50 मीटर बाद एक लेफ्ट टर्न आएगा। याद रखना, वहां दो लेफ्ट टर्न एक-दूसरे के बगल में है और अगर तुम मिस हो गए तो …’ तभी अचानक हाथ में मेडिकल फाइल्स लिए मेरी पत्नी आईं और ड्राइवर से बोलीं, तुमने अब तक गाड़ी नहीं निकाली, जल्दी निकालो, हम लेट हो रहे हैं।

पत्नी मेरी ओर देखकर बोलीं, जीपीएस जैसी मॉडर्न टेक्नोलॉजी का इस्तेमाल करना सीखो और पैनिक करना बंद कर दो। इसके बाद दोनों निकल गए और इस चक्कर में काम की बात नहीं सुनी, जहां मिस शब्द अचानक खत्म हो गया था।

मैं बताना चाह रहा था, “अगर पहला मोड़ मिस कर दिया तो दूसरा टर्न डेड एंड है और 3 किमी लंबा रूट लेकर वापस वहीं आना पड़ेगा। इसलिए पहला बायां मोड़ मिस मत करना, जहां अक्सर गन्ने के रस वाले खड़े रहते हैं, जिससे यह मोड़ नजर नहीं आता।’

ऐसा नहीं था कि उन्होंने धैर्य में कमी के चलते मेरी सलाह के अतिरिक्त 44 शब्द नहीं सुने या इससे अपॉइंटमेंट का समय मिस हो गया, बल्कि इसलिए क्योंकि अब जेब में हर समय जीपीएस होने से ड्राइवर्स के रास्ता खोजने वाले हुनर में बड़ा बदलाव आया है। वैज्ञानिक हमारी आंतरिक मानसिक स्थिति की जांच के लिए लंबे समय से नेविगेशन चैलेंज का इस्तेमाल करते आए हैं।

साल 1948 में एडवर्ड टोल्मन द्वारा किए प्रसिद्ध (रेट्स इन मेजेस) अध्ययन से कॉग्निटिव मैप्स अवधारणा ईजाद हुई, जो कि दिमाग के नेविगेशनल केंद्र की बात करती है। अध्ययन में पता चला कि कैसे चूहों ने साधारण से लेफ्ट और राइट को याद रखते हुए भूलभुलैया में आगे रास्ता ढूंढा। टोल्मन ने दिखाया कि कैसे शॉटकर्ट रास्ते तैयार करने के बावजूद चूहों ने सही डायरेक्शन लिया।

यह बताता है कि उन्हें कुछ-कुछ अंदर से अदाजा रहा है कि वे कहां हैं और कहां जाना चाहते हैं। वैज्ञानिकों का कहना है कि हमारे मस्तिष्क के एक क्षेत्र, जिसे हिप्पोकैम्पस कहा जाता है, उसमें हमारे पास “प्लेस सेल्स’ होते हैं, जो केवल तब न्यूरॉन्स फायर (एक तरह के इलेक्ट्रिकल सिग्नल) भेजते हैं, जब हम किसी विशेष स्थान पर होते हैं। हमारे पास विशेष न्यूरॉन्स भी होते हैं जो दिशाओं का ट्रैक करते हैं।

टोल्मन के अध्ययन में, शोधकर्ताओं ने चूहे के दिमाग को वायर्ड किया, इसमें उन्होंने पाया कि वह अपने मस्तिष्क में एन्कोडेड मानचित्र की बाहरी रेखाओं का अनुसरण करते हुए यह उस भूलभुलैया में आगे बढ़ता है और तब हम देख सकते हैं कि यह कैसे लगातार एक के बाद एक न्यूरॉन्स फायर काम करना शुरू कर देता है। इन अध्ययनों ने स्थापित किया कि हिप्पोकैम्पस मस्तिष्क में नेविगेशन के संबंध में स्थानिक स्मृति रखता है।

शोधकर्ताओं का दावा है, उनके पास मौजूद शोध निष्कर्ष साबित करते हैं कि नेविगेशन के लिए अपने दिमाग का इस्तेमाल करने वालों की तुलना में जो लोग जीपीएस जैसी किसी सुविधा पर हमेशा ही निर्भर रहते हैं, उनके हिप्पोकैंपस में संकुचन नजर आया है। सक्रिय रूप से जानकारी प्राप्त करने और उसी जानकारी को निष्क्रिय होकर प्राप्त करने के बीच में फर्क पर, पर्याप्त मात्रा में वैज्ञानिक शोध उपलब्ध हैं।

यही कारण है कि जीपीएस उपयोगकर्ताओं में धीरे-धीरे अधिक निष्क्रियता, ऑटोमेटिक मोड और मेमोरी लॉस हो रहा है। भविष्य में, शायद अगर ड्राइवर्स को अपनी नौकरी जारी रखना है, तो उन्हें इसलिए नहीं रखेंगे कि उनके पास नेविगेशन का हुनर है, जिसे हम ‘डायरेक्शन सेंस’ कहते हैं, बल्कि इसलिए रखेंगे क्योंकि किसी खास इलाके में पार्किंग नहीं मिलेगी और उन्हें वहां गाड़ी संभालने के लिए मौजूद रहना होगा।

फंडा यह है कि हम दुनिया से जिस तरह से पेश आ रहे हैं या बात करते हैं, नेविगेशनल दक्षता उसका पहला सिग्नल है। क्या आप वाकई चाहते हैं कि जीपीएस आपकी जिंदगी की गाड़ी को राह दिखाए या ‘प्लेस सेल्स’ संकुचित हो जाएं? इसके बारे में सोचें।

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