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एन. रघुरामन, मैनेजमेंट गुरु
सीताबुर्डी, नागपुर की भिड़े रोड नामक उस छोटी-सी गली में कोई भी ज्यादा अमीर नहीं था, लेकिन हम अपने पड़ोसियों की तुलना में थोड़े बेहतर थे। हमारा घर दूसरों से बड़ा दिखता था, क्योंकि उसमें कम अव्यवस्था थी, उसकी दीवारें हमेशा सफेद होती थीं जिन पर नियमित रूप से चूना लगाया जाता था और मां घर को चमचमाता, साफ-सुथरा रखती थीं, जिससे आने-जाने वालों को हमारी अमीरी का एहसास होता था।
जहां ज्यादातर लोग सड़क के किनारे की दुकान से 10 पैसे प्रति घंटे के हिसाब से साइकिल किराए पर लेते थे, वहीं हमारे घर में एक सेकंड हैंड साइकिल थी और घर के बाहर उसे साफ रखना मेरा काम था। ये छोटी-छोटी चीजें घर की खूबसूरती बढ़ाती थीं और इसलिए हम पड़ोसियों से ज्यादा समृद्ध दिखते थे।
यह अलग बात है कि साइकिल हमारे घर के लिए एक अच्छा वाहन थी और मैं होलसेल कॉटन मार्केट से गर्व के साथ उसे धक्का लगाकर लाता था। हमारे कम से कम दो पड़ोसी ऐसे थे, जो हमारे बाजार से लौटने पर हमेशा उत्सुक दिखते थे। उनकी उत्सुकता यह नहीं थी कि हम क्या खरीदते हैं, बल्कि यह थी कि हम इतना क्यों खरीदते हैं?
1960 और 70 के दशक में मात्र एक रुपए में मौसम के हिसाब से 10 से 16 किलो टमाटर या फूलगोभी मिल जाते थे। चूंकि मेरे पिता नौ भाई-बहनों में सबसे बड़े थे और मेरे दादा का घर संगम चॉल में सिर्फ एक किमी दूर था, इसलिए जब भी कीमतें गिरतीं, पिता हमेशा उस परिवार के लिए कुछ न कुछ खरीद देते थे।
रेलवे में होने के कारण उन्हें कीमतें पहले से पता चल जाती थीं, क्योंकि सब्जियां नागपुर और वर्धा के बीच चलने वाली लोकल ट्रेनों में लदकर आती थीं। इसलिए वे सब्जियां खरीदकर उनका एक बड़ा हिस्सा दादा-दादी के बड़े परिवार के पास पहुंचा देते थे, जिसके बारे में पड़ोसियों को कभी पता नहीं चलता था। उन्हें लगता था हम इतने अमीर हैं कि सब्जियां और खाने-पीने की चीजें खरीद सकते हैं। इसलिए वे अक्सर मेरी मां से कुछ न कुछ मांगते रहते थे।
मेरी मां का दिल बड़ा था, इसलिए उनसे जितना मांगा जाता, उससे ज्यादा वो दे देती थीं और इससे मुझे चिढ़ होती थी। वे मुझे यह कहते हुए अनदेखा कर देती थीं कि ‘तुम इसे समझने के लिए बहुत छोटे हो।’ और अचानक एक दिन मैंने उन्हें पड़ोसियों से कुछ मांगते हुए देखा। कम से कम मेरे लिए तो यह बहुत ही असामान्य दृश्य था।

मुझे गुस्सा आ गया। जब वे लौटीं तो मैंने उनसे कहा, ‘आपने उन लोगों से ऐसी छोटी-मोटी चीजें क्यों मांगीं?’ चूंकि मांएं समझदार होती हैं और उम्र के साथ-साथ वो और भी समझदार होती जाती हैं, इसलिए उन्होंने अपनी बुद्धिमानी भरी मुस्कान के साथ मेरी ओर देखा और कहा, ‘चलो मैं तुम्हें एक कहानी सुनाती हूं’।
उन्होंने बालाकुमारन की तमिल कहानी ‘करईओर मुदलैगल’ उठाई, जिसका अर्थ है ‘नदी के किनारे मगरमच्छ’। यह कहानी इस बारे में है कि मगरमच्छ नदी के किनारे आराम कर रहे होते हैं और उनके दांतों के बीच मांस फंसा होता है। तब सारस उनके खुले मुंह में किसी दंत चिकित्सक की तरह घुसकर उनके मसूढ़ों को साफ करते हैं।
मगरमच्छ कभी नहीं सोचते कि सारसों को भी खाया जा सकता है। जब मगरमच्छ का बच्चा आता है और सारस पर हमला करने की कोशिश करता है, तो उसकी मां उसे धक्का दे देती है। दांतों को साफ करने के बाद भी सारस मगरमच्छों के बीच गर्व से चलता रहता है और कभी भी खतरा महसूस नहीं करता।
कहानी सुनाकर मां ने कहा, ‘हमारे पड़ोसी अकसर हमसे कुछ मांगते हैं। समय-समय पर, मैं भी उनसे कोई छोटी और मामूली चीज मांग लेती हूं, ताकि उन्हें लगे कि हमें भी उनकी जरूरत है। इस तरह, वे अधिक सहज महसूस करेंगे। उनके लिए हमसे वह मांगना आसान हो जाएगा, जिसकी उन्हें जरूरत है।’
उस दिन मैंने समझा कि एकजुटता का मतलब सिर्फ देना नहीं होता। यह उन लोगों की गरिमा को बनाए रखना भी होता है, जो हमसे मांगते हैं। यह मानवीय रिश्तों को संतुलित करना सीखने के बारे में है ताकि कोई भी दूसरे से कमतर महसूस न करे।
फंडा यह है कि एक बढ़ा हुआ हाथ और एक बड़ा दिल किसी भी मदद चाहने वाले को हमारे बराबर बना सकता है और इस तरह एक मजबूत कम्युनिटी बनाने में हमारी मदद करता है।
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एन. रघुरामन का कॉलम: आपसे मदद चाहने वालों की गरिमा भी सुरक्षित रखें