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- N. Raghuraman’s Column Good Parents Fulfill Their Children’s Needs, Not Their Desires!
एन. रघुरामन, मैनेजमेंट गुरु
7 साल की समायरा मुम्बई के चेम्बूर में एक बड़े रिटेल स्टोर की शेल्फ के बीच में खड़ी थी। उसने अपनी मां अमृता से पूछा, ‘मम्मी मुझे ये मिठाई चाहिए’। अमृता ने इधर-उधर देखा और पाया कि वहां समायरा के कद का एक और बच्चा पहले से मिठाई खा रहा था और इसीलिए उसकी बच्ची ने भी उसी मिठाई की मांग की। वह जानती थी कि इस उम्र में यह स्वाभाविक है कि बच्चों को वो सब चाहिए, जो साथियों के पास है।
अमृता ने ग्रोसरी शेल्फ की ओर देखना बंद किया, हालांकि उसे पता था कि वह लेट हो रही थी और उसे सिर्फ दो और चीजें ही लेनी थी और घर जाना था क्योंकि मेहमान लंच पर आने वाले थे। लेकिन अपनी बेटी की मांग पर सख्ती से ‘ना’ कहने या उसकी मांग के आगे झुक जाने के बजाय उसने अपने काम को रोकने और बेटी से बात करने का फैसला किया।
वह थोड़ा झुकी और समायरा की आंखों में आंखें डालकर बोली ‘बताओ बच्चा’ (सख्त स्वर में), ईमानदारी से बताओ (करुण स्वर में) तुम्हें इस मिठाई की जरूरत है (सामान्य स्वर में) या…तुम बस इसे लेना चाहती हो? (जिज्ञासु स्वर में, जैसे मां को जवाब पता नहीं)।’ समायरा शर्माती सी उसके कंधे पर टिक गई, और धीमे स्वर में दूसरे बच्चे की ओर अंगुली करते हुए बोली ‘उसके पास ऐसी मिठाई है’।
अब इस मोलभाव में मां का पक्ष मजबूत था। अमृता ने कहा, ‘कोई बात नहीं, तुम्हें खाने के लिए मिठाई चाहिए। हमारे फ्रिज में रखीं हैं। हम घर जा रहे हैं, यदि तब भी तुम्हें लगे कि ये खानी है, तुम हमेशा ले सकती हो। पर सिर्फ इसलिए कि किसी दूसरे के पास यह है, इसका मतलब यह नहीं कि हमारे पास भी वही होनी चाहिए।’
स्टोर में कोई नहीं जानता कि समायरा इन गहरे शब्दों को समझ पाई या नहीं, लेकिन दूसरे बच्चे की मां अमृता के पास आई और उसकी तारीफ की। अमृता ने जल्दी से वो चीजें ली, जो वो चाहती थी और समायरा भी एक मेमने की तरह मां के पीछे खुशी-खुशी, नाचती हुई चलती दिख रही थी।
समायरा के पिता समीर और मां अमृता से ही उसे अपना नाम मिला। दोनों ही बैंकर हैं और ऊंचे पद पर हैं और मुम्बई की सबसे पॉश कॉलोनी में रहते हैं, इसलिए उनके लिए अफॉर्डबिलिटी कभी कोई मसला नहीं रहा। फिर भी समायरा को वह सब कुछ नहीं मिलता, जो वह चाहती है।
यही उनकी परवरिश की खूबसूरती है। दूसरी कक्षा में पढ़ने वाली समायरा के दादा-दादी ने इस रविवार को मुझे और मेरी पत्नी को दोपहर के भोजन के लिए आमंत्रित किया। इसी कारण मैं इस वाकिये के बारे में जान पाया।
अमृता ने कहा,‘माता-पिता बच्चों के सुखद बचपन के निर्माण के लिए नियमित प्रयास करते हैं। यह बहुत महत्वपूर्ण है कि बढ़ते बच्चों की जरूरतों का ध्यान रखा जाए और वो सबकुछ दिया जाए, जिसकी उन्हें जरूरत है। लेकिन ठीक उसी समय, इच्छाओं व सनक के बीच महीन रेखा होती है, और पैंरेंन्ट्स को चाहिए कि वे अपने बच्चों को इस अंतर के बारे में समझाने की जिम्मेदारी लें।
जब उन्हें सब मिल जाता है तो एक समय पर वह बहुत सी चीजों के प्रति लालची हो जाते हैं। यह जरूरी है कि वे बड़े होने पर आवश्यकता और चाहत के बीच के अंतर को समझे। यह सब बताते हुए अमृता ने ये भी कहा कि मैं खुद को कभी नहीं रोकती, मैं बेटी की जरूरतें पूरी करती हूं, उसके बचपन में चमक बिखेरने वाले गिफ्ट देती हूं और उसे उनका आनंद लेने देती हूं।
लेकिन सिर्फ माता-पिता ही यह जानते हैं कि कब बच्चा थोड़ा जिद्दी हो रहा है और यही वह समय होता है जब बच्चों को यह सीख देनी होती है कि ‘अपनी जरूरतों को जानो’। समायरा के पैरेंट्स से बातचीत में मुझे एहसास हुआ कि वे मेरी पीढ़ी की तुलना में अधिक बेहतर माता-पिता है। उसी समय मैंने निर्णय किया कि अगली ‘गुड पैरेंटिंग’ सेमिनार में उन्हें बुलाया जाना चाहिए।
फंडा यह है कि जरूरतों को प्राथमिकता के स्तर पर तय करने से किसी बच्चे को यह समझने में सहायता मिलती है कि उसे किस चीज की जरूरत है और कौन-सी चीज सिर्फ उसकी चाहत है। इससे उनमें एहसानमंद होने और संतोष की भावना विकसित होती है। इससे बच्चा जिम्मेदारी, मुसीबतों से पार पाने की क्षमता और कठिन परिश्रम के महत्व जैसे जीवन के मूल्यवान सबक भी सीखता है।
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एन. रघुरामन का कॉलम: अच्छे पैरेन्ट्स बच्चों की जरूरतें पूरी करते हैं, चाहत नहीं!