[ad_1]
- Hindi News
- Opinion
- N. Raghuraman’s Column Ready To Hand Over Something Good To The Next Generation?
एन. रघुरामन मैनेजमेंट गुरु
होली की छुट्टियों में हमने छोटा-सा ब्रेक लिया और नासिक वाले घर गए। वहां मैंने चावल के आटे से रंगोली डाली। ये आदत मैंने मां से सीखी थी, वो रोज घर में रंगोली डालती थीं, यहां तक कि कैंसर होने के बाद भी ये रोज करतीं, जबकि वो झुक भी नहीं पाती थीं। तब मैं उनकी मदद करता और उनसे ये कला सीखी। जब मैं पूछता कि वो इतना दर्द क्यों सहती हैं, तो कहतीं, ‘हम इंसानों को उन प्रजातियों को भी बचाना चाहिए, जिन्हें ईश्वर ने बनाया है।
ऐसी ही एक प्रजाति चींटी की रक्षा करने का मेरा ये तरीका है और अब मैं इस धरती को बेहतर स्थिति में तुम्हारे हाथों में सौंप रही हूं।’ मां का ये उदार रवैया मुझे तब याद आ गया, जब मैंने पुणे की रहवासी सोसायटी के बारे में सुना, जो गौरैया के संरक्षण के लिए 15 सालों से सक्रिय है। 20 मार्च को विश्व गौरैया दिवस के मौके पर ये बाकी सोसायटी में नेस्ट बॉक्स व फीडर बांटते हैं। कुछ लोग बिल्डर्स से चर्चा करते हैं कि वे बिल्डिंग के बाहरी हिस्से में ईंटों के बीच खोखली जगह छोड़े, जिससे गौरैया को घोंसले की जगह मिले। शहरीकरण का शिकार गौरैया को बचाने का उनका यह तरीका है।
दूसरा उदाहरण देखें। पिछले हफ्ते मैक्सिको के लीडर्स ने अपने देसी कॉर्न को “राष्ट्रीय पहचान का तत्व’ घोषित किया और इसे संविधान में शामिल करने के लिए वोट डाले। ये उपाय मैक्सिको की विरासत कॉर्न की हजारों किस्मों को पड़ोसी अमेरिकी कंपनियों के यांत्रिक कॉर्न से बचाने के लिए हैं और अब ये राष्ट्रवादी नारे मेंं बदल गया है। मैक्सिको में कॉर्न संवेदनशील मुद्दा है क्योंकि यहां के इतिहास के मुताबिक कॉर्न 9000 साल पहले तब ईजाद हुआ, जब मेसोअमेरिकी किसानों ने टियोसिंटी नाम की जंगली घास को घरेलू उगाना शुरू किया। तब से इसे आदरपूर्वक देखा जाने लगा। आश्चर्य नहीं कि मैक्सिको की राष्ट्रपति क्लाउडिया शीनबॉम ने हाल ही में कहा “कॉर्न मैक्सिको का है… कॉर्न वह है जो हमें हमारे मूल से अंतर्निहित रूप से जोड़ता है और हमें इसकी रक्षा करनी चाहिए।”
हमारे उत्तर-पूर्व की कहानी भी कुछ अलग नहीं। दार्जीलिंग में 7,050 फुट की ऊंचाई पर 67.8 एकड़ में फैला पद्मजा नायडू हिमालयन जूलॉजिकल पार्क, स्टील के टैंक में भरी लिक्विड नाइट्रोजन में माइनस 196 डिग्री सेल्सियस तापमान पर, हिमालय के वन्यजीवों के डीएनए को संरक्षित करके रख रहा है। पारंपरिक ज़ू जहां वन्यजीवों को सिर्फ प्रदर्शनी के तौर पर दिखाते हैं, उनसे इतर ये देश का पहला ‘फ्रोजन ज़ू’ है, और दोहरी भूमिका निभा रहा है, जीवित पशुओं का आवास है व उनकी आनुवंशिक विरासत को सुरक्षित रख रहा है।
पिछले साल जुलाई से, यहां के वैज्ञानिक यहां मौजूद वन्यजीवों से जेनेटिक मटेरियल एकत्रित और संरक्षित कर रहे हैं और बायो-बैंक के प्रयास शुरू हो गए हैं। क्या आप जानते हैं कि वे यह क्यों कर रहे हैं? ताकि हमारे बाद की कई पीढ़ियां रेड पांडा, हिमालयन काले भालू, स्नो लैपर्ड और गोरल देख सकें। फ्रोजन ज़ू दुनियाभर में लोकप्रिय हो रहे हैं, जो किसी भी विलुप्ति की कगार पर खड़ी प्रजाति के लिए अंतिम रक्षा पंक्ति बनते हैं।
बढ़ती वैश्वीकरण से न सिर्फ हमारे व इन जीवों के भोजन के विलुप्त होने बल्कि हमारी मदद के बिना कुछ अमूर्त सांस्कृतिक धरोहरें गायब होने का भी खतरा है। यही कारण है कि यूनेस्को भी कहता है कि हमें अपनी संस्कृतियों की सक्रिय होकर रक्षा करनी चाहिए ताकि भविष्य की पीढ़ियों को बेहतर दुनिया सौंप सकें। यूनेस्को की महानिदेशक ऑड्री अजोले कहती हैं, “विरासत का सम्मान करना, इसे सुरक्षित रखना भर नहीं है; यह इस बारे में भी है कि आने वाली पीढ़ियां इसे जानें।’ इसका मतलब है कि अगली पीढ़ियां विरासत को अपनाकर, उस पर गर्व करके, और यदि जरूरत हो तो उसे नवीनीकरण कर सकती हैं। और बिल्कुल इसी विश्वास के साथ हमारे पूर्वजों ने काम किया और यही कारण है कि हमारी प्राचीन संस्कृति इस आधुनिक समाज में अभी भी फल-फूल रही है।
फंडा यह है कि इस पूरी ह्यूमन रेस की भलाई की खातिर व्यक्तिगत तौर पर हम सबको अपनी संस्कृति और उसके प्रति यह यकीन अगली पीढ़ी के हाथों में सौंपना चाहिए, जिसको लेकर हम अच्छा महसूस करते हैं। इसकी चिंता न करें कि अगली पीढ़ी को यह पसंद आता है या नहीं।
[ad_2]
एन. रघुरामन का कॉलम: अगली पीढ़ी को कुछ अच्छा सौंपने के लिए तैयार हैं?