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आरती जेरथ राजनीतिक टिप्पणीकार
मणिपुर में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की यात्रा बहुप्रतीक्षित थी। लेकिन इस दौरान उठी असहमति की आवाजें बताती हैं कि 28 महीनों की जातीय हिंसा के दौरान मणिपुर को मिले जख्मों पर मरहम लगाने के लिए तीन घंटे का दौरा काफी नहीं हो सकता था।
पीएम के मणिपुर पहुंचने से कुछ घंटों पहले ही विरोध-प्रदर्शन करने वालों ने उनके स्वागत में लगाए पोस्टर फाड़ दिए थे। उनके रवाना होने के कुछ घंटे बाद फिर से हिंसा भड़क उठी। आक्रोशित भीड़ ने चुराचांदपुर में एक कुकी नेता का घर जला दिया। कई अन्य घरों पर हमला किया गया।
इसी इलाके में एक दिन पहले ही प्रधानमंत्री ने शांति का आह्वान किया था, छात्राओं से पारंपरिक लोक-गीत सुने थे और विकास परियोजनाओं का उद्घाटन किया। सत्य, समाधान और न्याय के रोडमैप के बिना कोई शांति मिशन पूरा नहीं होता। मणिपुर को उन मुद्दों पर राजनीतिक समाधान देने की जरूरत थी, जिनके चलते यह प्रदेश संघर्ष की भेंट चढ़ते हुए जातीय तौर पर विभाजित हो चुका था।
प्रधानमंत्री के दौरे में लगभग 8 हजार करोड़ रुपए की बुनियादी ढांचे की योजनाओं की घोषणा की गई थी, जिनमें एक कामकाजी महिला हॉस्टल, नया सचिवालय और पुलिस मुख्यालय आदि शामिल थे। इसके बावजूद चुराचांदपुर से स्वयं भाजपा विधायक हाओ कि अपनी मायूसी नहीं छुपा पाए।
उन्होंने कहा कि प्रधानमंत्री द्वारा उद्घाटित परियोजनाओं में से अधिकतर नई नहीं थीं। लेकिन इससे भी बढ़कर योजनाओं का असंतुलित वितरण गहरी चिंता का विषय था, क्योंकि डर है कि इससे जातीय दरारें और गहराएंगी। हाओकि के अनुसार घोषणाओं की लगभग 85% योजनाएं मैतेई प्रभुत्व वाले घाटी के इलाके को लाभान्वित करेंगी। जबकि कुकी-बहुल पहाड़ी क्षेत्रों को बहुत कम मिलेगा। उन्होंने स्पष्ट कहा कि आर्थिक पैकेज से हालात सामान्य नहीं होंगे। हमारे सामने राजनीतिक समस्या है और उसका समाधान भी राजनीतिक ही चाहिए।
ऐसा नहीं है कि प्रधानमंत्री ने लोगों से संपर्क साधने का प्रयास नहीं किया हो। चुराचांदपुर और इम्फाल, दोनों जगहों पर उन्होंने शरणार्थी शिविरों में रह रहे हिंसा पीड़ितों से मुलाकातें कीं। नौकरियों, क्षेत्र में बिना किसी भय के वस्तुओं और लोगों के आवागमन और जल्द सामान्य स्थिति की बहाली जैसी उनकी गुहार सुनी। लेकिन उत्साहवर्धक बातों और सद्भाव बढ़ाने के आह्वान से इतर प्रधानमंत्री के पास भविष्य की बेहतरी के लिए किसी ठोस वादे का अभाव दिखा।
कम से कम यह एक मौका तो था, जब भरोसा बनाने और शांति बहाली की यात्रा शुरू की जा सकती थी। चुराचांदपुर में पहली चिंगारी से भड़की आग को लगभग पूरे राज्य में फैले 28 महीने हो चुके हैं। हालांकि इस साल फरवरी में देरी से लागू किए गए राष्ट्रपति शासन के बाद भी वहां के खंडित हो चुके समाज में संदेह और शत्रुता के अंगार सुलगते रहते हैं। कुकी लोग पहाड़ियों तक ही सीमित हैं, मैतेई घाटी तक। कोई भी दूसरे के क्षेत्र में जाने की हिम्मत नहीं करता।
राज्य की मुख्य जीवनरेखा- राष्ट्रीय राजमार्ग 2- प्रधानमंत्री की यात्रा की प्रत्याशा में फिर से खोल दी गई, लेकिन शत्रुतापूर्ण जातीय क्षेत्रों में जाने के डर से शायद ही कोई इस पर यात्रा करता है। चूंकि अधिकांश आर्थिक गतिविधियां इम्फाल के आसपास केंद्रित हैं, इसलिए पहाड़ियों तक सीमित कुकी लोगों ने आजीविका के स्रोत खो दिए हैं।
मणिपुर संकट जैसी त्रासदियों के कोई सरल समाधान नहीं हो सकते। लेकिन समाधानों की तलाश दो महत्वपूर्ण कारणों से शुरू हो जानी चाहिए। अव्वल तो देश की चेतना को झकझोरने के लिए, क्योंकि आखिर हम कब तक अपने ही लोगों के दु:ख-दर्द से नजरें फेरे रखेंगे? दूसरे, एक संवेदनशील सीमावर्ती राज्य में सुरक्षागत खतरों को लेकर भी हमें चिंतित होना चाहिए।
मणिपुर म्यांमार के साथ सीमाएं साझा करता है, जिससे वहां उग्रवादियों, नशीले पदार्थों और हथियारों की पहुंच आसान हो जाती है। बांग्लादेश की स्थिति भी चिंताजनक है। मोहम्मद यूनुस ने अपने देश और पूर्वोत्तर के राज्यों के बीच मुक्त व्यापार के एक आर्थिक क्षेत्र का प्रस्ताव रखकर एक नए विवाद को जन्म दे दिया है। प्रधानमंत्री का दौरा इस बात की प्रबल पुष्टि है कि मणिपुर भारत का अभिन्न अंग है। तब वहां पर राजनीतिक सुलह की प्रक्रिया शुरू होनी चाहिए।
मणिपुर संकट जैसी त्रासदियों के कोई सरल समाधान नहीं हो सकते। लेकिन समाधानों की तलाश शुरू हो जानी चाहिए। अव्वल तो देश की चेतना को झकझोरने के लिए ही, क्योंकि आखिर हम कब तक अपने ही लोगों के दु:ख-दर्द से नजरें फेरे रखेंगे? (ये लेखिका के अपने विचार हैं)
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आरती जेरथ का कॉलम: राजनीतिक समस्याओं के समाधान भी राजनीतिक हों
