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आरती जेरथ राजनीतिक टिप्पणीकार
दस दिन की सघन वार्ताओं और खासी नाटकीयता के बाद देवेंद्र फडणवीस तीसरी बार महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री बनेंगे। अपने दूसरे अनाड़ी प्रयास के विपरीत- जिसमें अविभाजित शिवसेना-एनसीपी और कांग्रेस ने पांच दिनों के भीतर उन्हें सत्ता से बाहर कर दिया गया था- इस बार वे पांच साल का कार्यकाल पूरा करने के मकसद से कुर्सी सम्भालेंगे।
भाजपा को प्रचंड बहुमत दिलाने के बावजूद फडणवीस को मुख्यमंत्री पद हासिल करने के लिए खासी जद्दोजहद करनी पड़ी है।लेकिन दो फैक्टर उनके पक्ष में गए। भाजपा के प्रदर्शन में फडणवीस ने अपने योगदान का पुरजोर दावा किया है। वे चुनाव-प्रचार अभियान के दौरान पार्टी का मुख्य चेहरा थे और उन्होंने राज्य के सभी छह क्षेत्रों में 64 रैलियां कीं।
दूसरा फैक्टर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से उन्हें मिला अटूट समर्थन था। ध्यान रहे कि मुख्यमंत्री के रूप में नाम तय होने के बाद फडणवीस ने सबसे पहले संघ मुख्यालय में ही फोन लगाया है। संघ इस बात पर अड़ा हुआ था कि भाजपा को कार्यकर्ताओं का मनोबल ऊंचा रखने के लिए इस बार मुख्यमंत्री पद के लिए किसी लो-प्रोफाइल चेहरे को नहीं चुनना चाहिए और फडणवीस ही इस पद के लिए उसकी पहली पसंद हैं।
मोदी-शाह संघ से मिले इस संदेश को नजरअंदाज नहीं कर सके। संघ के असहयोग की कीमत भाजपा को लोकसभा चुनावों में चुकानी पड़ी थी। लेकिन हरियाणा और महाराष्ट्र में भाजपा की किस्मत में अचानक आए बदलाव से यह स्पष्ट था कि संघ ने चुनावों में अपनी पूरी ताकत लगाई है।
गौरतलब है कि संघ प्रमुख मोहन भागवत कुछ दिनों के लिए दिल्ली में थे और लगभग उसी समय महायुति के नेता भी अमित शाह के साथ सरकार गठन पर चर्चा के लिए वहां आए थे। दिलचस्प यह है कि शाह ने पहले दौर की वार्ता के लिए फडणवीस और अजित पवार से मिलने से पहले एकनाथ शिंदे के साथ आमने-सामने की बैठक की थी। और यहीं से समस्याएं शुरू हुईं।
शिंदे ने मुख्यमंत्री पद के लिए अपना दावा इस आधार पर पेश किया कि उन्होंने अपने विकास कार्यक्रमों और कल्याणकारी योजनाओं- खास तौर पर महिलाओं में लोकप्रिय लाड़की बहिन योजना के साथ महायुति की जीत में बराबर का योगदान दिया है। शिंदे को पता था कि महाराष्ट्र में जिस तरह के आंकड़े सामने आए थे, उनके मद्देनजर उनके पास अपनी दावेदारी को आगे बढ़ाने के लिए पर्याप्त साधन नहीं थे।
भाजपा और अजित पवार के पास शिंदे के बिना भी सरकार बनाने के लिए बहुमत था। लेकिन उन्हें दिल्ली के राजनीतिक मूड का अंदाजा था। उन्हें पता था कि मोदी-शाह की जोड़ी महायुति की व्यापक जीत के बाद उसमें एकता बनाए रखने के लिए अतिरिक्त प्रयास करने को तैयार है और उन्होंने उसी हिसाब से अपना खेल खेला।
शिंदे को मनाने में दस दिन लग गए, और यह अवधि फडणवीस को अनंतकाल की तरह लगी होगी। लेकिन उन्होंने धैर्यपूर्वक प्रतीक्षा की और संघ की शाखाओं में बचपन में सीखे अनुशासन का अच्छा उपयोग किया। उन्होंने अपने लिए जोरदार पैरवी की, लेकिन चुपचाप तरीके से।
वे इस बात को लेकर सावधान थे कि खुद पर ध्यान आकर्षित न करें और सार्वजनिक रूप से मुंह न खोलें, क्योंकि उन्हें पता था कि इससे बात बिगड़ सकती है। आम सहमति का पहला संकेत तब मिला, जब फडणवीस ने भाजपा विधायक दल की बैठक की पूर्व संध्या पर शिंदे से मुलाकात की, जिससे सीएम के रूप में उनके पदभार ग्रहण करने का मार्ग प्रशस्त हुआ। फडणवीस की वापसी का महत्व दो तरह से है।
पहला, यह उस पैटर्न से अलग है, जो हाल के वर्षों में मोदी-शाह की जोड़ी द्वारा भाजपा द्वारा जीते गए राज्यों में अपेक्षाकृत अज्ञात नेताओं को सीएम के रूप में चुनने में दिखाई दिया था। मध्य प्रदेश में शिवराज की जगह मोहन यादव को चुना गया, जबकि लाड़ली बहना योजना के पीछे शिवराज का दिमाग था।
राजस्थान में वसुंधरा की जगह भजन लाल शर्मा को चुना गया, जबकि छत्तीसगढ़ में रमन सिंह को विष्णु देव साई के लिए नजरअंदाज किया गया। लेकिन अब फडणवीस, अमित शाह और योगी आदित्यनाथ के साथ अगली पीढ़ी के नेताओं की उभरती हुई पांत में जगह बनाने के लिए तैयार हैं, जिन्हें जरूरत पड़ने पर मोदी के बाद के परिदृश्य के लिए तैयार किया जा सकता है।
शाह, योगी और फडणवीस- इन तीनों में अभी बहुत वर्षों की राजनीति शेष है। इनमें भी फडणवीस को ऐसे सर्वमान्य व्यक्ति के रूप में देखा जाता है, जो खींचतान और दबाव के बीच संतुलन बनाए रखते हैं। इस विधा में उनके कौशल का परीक्षण महाराष्ट्र में तीन-पक्षीय गठबंधन सरकार के नेतृत्व से होने जा रहा है।
- भाजपा को प्रचंड बहुमत दिलाने के बावजूद फडणवीस को मुख्यमंत्री पद हासिल करने के लिए खासी जद्दोजहद करनी पड़ी। लेकिन उन्होंने हाईकमान द्वारा अपेक्षाकृत अज्ञात चेहरों को सीएम बनाने के पैटर्न को बदल दिया है।
(ये लेखिका के अपने विचार हैं)
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आरती जेरथ का कॉलम: फडणवीस ने अग्रिम पंक्ति के नेताओं में जगह बना ली है