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- Aarti Jerath’s Column: Will The Upcoming Elections In Jammu And Kashmir Bring About Any Change?
आरती जेरथ राजनीतिक टिप्पणीकार
केंद्र शासित प्रदेश जम्मू-कश्मीर में विधानसभा चुनावों की घोषणा एक स्वागत-योग्य घटनाक्रम है। जैसा कि हाल ही में हुए लोकसभा चुनावों में वहां पर 50% से अधिक मतदान ने दिखाया है, छह साल के केंद्रीय शासन के बाद जम्मू-कश्मीर के लोगों में लोकतांत्रिक अभिव्यक्ति की तीव्र इच्छा है।
हालांकि, इस अशांत क्षेत्र में लोकतंत्र की वापसी का कोई भी जश्न सावधानी के साथ ही मनाया जाना चाहिए। इसके कई कारण हैं। सबसे स्पष्ट कारण हाल के हफ्तों में जम्मू में आतंकी हमलों में हुई बढ़ोतरी है, जिसके मद्देनजर वहां पर चुनाव कराना एक सुरक्षागत चुनौती है।
जून की शुरुआत में मोदी सरकार के तीसरे कार्यकाल की शुरुआत के बाद से वहां पर आतंकवाद की कम से कम 9 घटनाएं हो चुकी हैं, जिनके परिणामस्वरूप 12 सैनिक मारे गए और 13 घायल हुए हैं, वहीं 10 नागरिकों की भी मृत्यु हुई है और 44 के घायल होने का अनुमान है।
यहां इस पर गौर करना महत्वपूर्ण है कि जम्मू-कश्मीर में चुनाव कार्यक्रम की घोषणा से पहले प्रशासन और पुलिस में बड़े पैमाने पर रातोंरात तबादले किए गए थे, जो यकीनन शांतिपूर्ण चुनाव कराने में संभावित खतरों से निपटने का एक प्रारंभिक अभ्यास है।
लेकिन इससे अधिक चिंताजनक स्थिति राजनीतिक अनिश्चितता की है। 2019 में अनुच्छेद 370 के निरस्त होने के बाद से जम्मू और कश्मीर खुद को अधर में पाता है। वहां पर पुरानी व्यवस्था बिखर चुकी है, लेकिन नई विकसित होना अभी बाकी है। देश के इस एकमात्र मुस्लिम बहुल राज्य को हिंदुत्व के पाले में लाने के राजनीतिक और सामाजिक प्रयोग नाकाम रहे हैं।
इस बात की भी कोई गारंटी नहीं है कि आगामी चुनाव वहां के हालात में और स्पष्टता ला पाएंगे। इसके बजाय, वर्तमान में जैसा खंडित राजनीतिक प्रारूप अपनाया जा रहा है, उससे वहां एक अस्पष्ट परिणाम सामने आने का ही अधिक अंदेशा है। सवाल उठता है कि क्या सरकार के मन में जम्मू और कश्मीर के लिए कोई योजना है? चिंता के दो क्षेत्र हैं।
एक है लोकसभा चुनाव में मतदान का पैटर्न, खास तौर पर बारामूला में। इस निर्वाचन क्षेत्र की सड़कों पर दिख रहे युवा जोश ने सभी को चौंका दिया था और नेशनल कॉन्फ्रेंस के उमर अब्दुल्ला को वहां पर हार का सामना करना पड़ा था, जो पुराने जम्मू-कश्मीर की राजनीति का एक स्तम्भ माने जाते थे।
जेल में बंद अलगाववादी इंजीनियर राशिद के समर्थन में युवाओं की भीड़ उमड़ पड़ी, जिसने निर्दलीय के तौर पर चुनाव लड़ा था। राशिद के पास कोई पार्टी संगठन नहीं था और उसके चुनाव-अभियान का नेतृत्व उसके दो बेटों ने किया था।
विधानसभा चुनाव में इसी तरह के रुझान दिखे तो अप्रत्याशित नतीजे आ सकते हैं। अब्दुल्ला परिवार की नेशनल कॉन्फ्रेंस और महबूबा मुफ्ती की पीपुल्स डेमोक्रेटिक पार्टी- दोनों ने पिछले कुछ सालों में वहां अपनी जमीन खोई है, क्योंकि आम धारणा यह है कि वे कश्मीरी लोगों के स्वतंत्र नेता के बजाय दिल्ली की कठपुतली की तरह काम करते रहे हैं।
इससे वहां पर एक राजनीतिक शून्य पैदा हुआ है। अल्ताफ बुखारी की ‘अपनी पार्टी’ और सज्जाद लोन की पीपुल्स कॉन्फ्रेंस जैसे वैकल्पिक खिलाड़ियों को आगे बढ़ाने के सरकार के प्रयास कामयाब नहीं रहे हैं और भाजपा खुद घाटी में जोर आजमाने का मन नहीं बना पा रही है, जैसा कि कश्मीर में तीन लोकसभा सीटों पर चुनाव नहीं लड़ने के उसके फैसले से भी जाहिर हुआ है। दूसरी चिंता जम्मू को लेकर है।
यह क्षेत्र न केवल हाल के आतंकी हमलों का निशाना रहा है, बल्कि कभी भाजपा का गढ़ माने जाने वाले इस क्षेत्र पर भी उसकी पकड़ कमजोर होती दिख रही है। हालांकि उसने जम्मू में दोनों लोकसभा सीटें जीत ली थीं, लेकिन एनसी के साथ गठबंधन में कांग्रेस ने आश्चर्यजनक रूप से अच्छा प्रदर्शन किया था। उसने मुस्लिम और एससी वोटों को एकजुट करके मजबूत परिणाम दिए थे। उसका वोट शेयर भाजपा से 10 ही प्रतिशत कम था।
जम्मू-कश्मीर को लेकर अभी तक रणनीतियां तय नहीं की गई हैं। गठबंधन नहीं बने हैं। न ही यह स्पष्ट है कि कौन-सी ताकतें चुनाव मैदान में उतरेंगी। सैयद गिलानी की प्रतिबंधित जमात-ए-इस्लामी के भी चुनाव-मैदान में उतरने की चर्चा है।
परिसीमन के बाद कश्मीर में विधानसभा की 47 सीटें हैं और जम्मू में 43 सीटें। क्षेत्र की राजनीति की विभाजित प्रकृति और घाटी और जम्मू के बीच गहरे मतभेद को देखते हुए, चुनाव को संभव बनाने के लिए की गई कड़ी मेहनत के बावजूद अस्पष्ट निर्णय की पूरी संभावना है। चुनाव के बाद भी जम्मू-कश्मीर खुद को पहले जैसी हालत में पा सकता है।
(ये लेखिका के अपने विचार हैं)
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