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आज का एक्सप्लेनर: ट्रम्प ने भारत-चीन को धमकाया, डॉलर पर आंच से अमेरिका इतना डर क्यों जाता है; वो सब कुछ जो जानना जरूरी Today World News

आज का एक्सप्लेनर:  ट्रम्प ने भारत-चीन को धमकाया, डॉलर पर आंच से अमेरिका इतना डर क्यों जाता है; वो सब कुछ जो जानना जरूरी Today World News

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भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और अमेरिका के नए चुने गए राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प कई मौकों पर एक दूसरे को अच्छा दोस्त बता चुके हैं, लेकिन व्यापार से जुड़े मसलों पर भारत को घेरते भी रहे हैं। इसी कड़ी में ट्रम्प ने BRICS में शामिल भारत, चीन जैसे देश

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ट्रम्प ने कहा कि अगर BRICS देशों ने डॉलर के अलावा दूसरी करेंसी में ट्रेड किया तो उन पर 100% ट्रैरिफ लगाएंगे। ट्रम्प ने ये धमकी क्यों दी और डॉलर पर आंच आते ही अमेरिका इतना घबरा क्यों जाता है; इसी टॉपिक पर आज का एक्सप्लेनर…

सवाल-1: ट्रम्प ने BRICS देशों को धमकाते हुए क्या कहा है? जवाबः ट्रम्प ने कहा है कि अगर BRICS देश अमेरिकी डॉलर की जगह किसी दूसरी करेंसी में ट्रेड करते है, तो उन्हें अमेरिकी बाजार में अपने प्रोडक्ट्स बेचने से विदा लेना पडे़गा।

उन्होंने शनिवार को सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म एक्स पर लिखा,

BRICS देशों की डॉलर के इस्तेमाल को कम करने की कोशिश पर अमेरिका चुप नहीं बैठेगा। हमें BRICS देशों से गारंटी चाहिए कि वो ट्रेड के लिए अमेरिकी डॉलर की जगह, कोई नई करेंसी नहीं बनाएंगे और न ही किसी दूसरे देश की करेंसी में ट्रेड करेंगे।

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सवाल-2: BRICS देशों ने ऐसा क्या किया, जिस पर भड़के हैं ट्रम्प? जवाबः इस साल 22 से 24 अक्टूबर को रूस के कजान शहर में BRICS देशों की 16वीं समिट हुई थी। इस दौरान BRICS देशों के बीच अपना पेमेंट सिस्टम बनाने को लेकर चर्चा हुई थी, ताकि ग्लोबली ट्रेड के लिए डॉलर का सहारा कम लिया जा सके।

इस पेमेंट सिस्टम को ग्लोबल SWIFT पेमेंट सिस्टम की तर्ज पर बनाने का विचार किया गया था। भारत ने BRICS देशों को पेमेंट सिस्टम के लिए अपना UPI देने की पेशकश भी की थी।

इस दौरान BRICS देशों के ट्रेड के लिए नई करेंसी बनाने या किसी दूसरे देश की करेंसी का इस्तेमाल करने की भी चर्चाएं तेज हो गई थीं। हालांकि, इसके लिए BRICS देशों के बीच सहमति नहीं बन पाई थी।

BRICS समिट से पहले रूसी राष्ट्रपति पुतिन ने कहा था कि रूस डॉलर को छोड़ना या उसे हराना नहीं चाहता है, बल्कि उसे डॉलर के साथ काम करने से रोका जा रहा है। इसलिए डॉलर की जगह किसी दूसरे विकल्प को ढूंढना मजबूरी है।

23 अक्टूबर को BRICS की समिट में शामिल PM मोदी, राष्ट्रपति पुतिन और राष्ट्रपति शी जिनपिंग

23 अक्टूबर को BRICS की समिट में शामिल PM मोदी, राष्ट्रपति पुतिन और राष्ट्रपति शी जिनपिंग

डॉलर की वैल्यू को कम करने के BRICS देशों की इन्हीं कोशिशों पर ट्रंप भड़क गए है। BRICS में भारत, रूस और चीन समेत 9 देश शामिल हैं। यह उभरती हुई अर्थव्यवस्थाओं वाले देशों का समूह है।

सवाल-3: अमेरिकी डॉलर दुनिया की सबसे मजबूत करेंसी कैसे बना? जवाब: मान लीजिए भारत को पाकिस्तान की करेंसी पर भरोसा नहीं है। ऐसे में वो पाकिस्तानी करेंसी में व्यापार नहीं करेगा। ऐसी ही समस्या के लिए 1944 में तमाम देशों ने मिलकर डॉलर को बेस करेंसी बनाया था। यानी भारत पाकिस्तान से डॉलर में कारोबार कर सकता है, क्योंकि उसे पता है कि अमेरिकी डॉलर डूबेगा नहीं और जरूरत पड़ने पर अमेरिका डॉलर के बदले सोना दे देगा।

ये व्यवस्था करीब 3 दशक चली। डॉलर दुनिया की सबसे सुरक्षित करेंसी बन चुका था, लेकिन 1970 की शुरुआत में कई देशों ने डॉलर के बदले सोने की मांग शुरू कर दी। ये देश अमेरिका को डॉलर देते और उसके बदले में सोना लेते थे। इससे अमेरिका का सोने का भंडार खत्म होने लगा।

1971 में अमेरिकी राष्ट्रपति निक्सन ने डॉलर को सोने से अलग कर दिया। इसके बावजूद देशों ने डॉलर में लेन-देन जारी रखा, क्योंकि तब तक डॉलर दुनिया की सबसे सुरक्षित मुद्रा बन चुका था।

डॉलर की मजबूती की एक और बड़ी वजह थी। दरअसल, 1945 में अमेरिका के राष्ट्रपति रूजवेल्ट ने सऊदी के साथ एक करार किया। करार की शर्त ये थी कि उसकी सुरक्षा अमेरिका करेगा और बदले में सऊदी सिर्फ डॉलर में तेल बेचेगा। यानी अगर देशों को तेल खरीदना है, तो उनके पास डॉलर होना जरूरी है।

सवाल-4: डॉलर की पावर के दम पर अमेरिका बैठे-बिठाए कैसे अरबों कमाता है? जवाब: हम किसी चीज को खरीदने के लिए कई तरीकों से उसका दाम चुकाते हैं। जैसे- कैश, ऑनलाइन बैंकिंग, UPI ट्रांसफर। ऐसे ही दुनियाभर के देश आपस में व्यापार करने के लिए अमेरिका के SWIFT नेटवर्क का इस्तेमाल करते हैं। इसके जरिए अमेरिका बैठे-बिठाए अरबों कमाता है।

1973 में 22 देशों के 518 बैंक के साथ SWIFT नेटवर्क शुरू हुआ था। फिलहाल इसमें 200 से ज्यादा देशों के 11,000 बैंक शामिल हैं, जो अमेरिकी बैंकों में अपना विदेशी मुद्रा भंडार रखते हैं। अब सारा पैसा तो व्यापार में लगा नहीं होता, इसलिए देश अपने एक्स्ट्रा पैसे को अमेरिकी बॉन्ड में लगा देते हैं, जिससे कुछ ब्याज मिलता रहे। सभी देशों को मिलाकर ये पैसा करीब 7.8 ट्रिलियन डॉलर है। यानी भारत की इकोनॉमी से भी दोगुना ज्यादा। इस पैसे का इस्तेमाल अमेरिका अपनी ग्रोथ में करता है।

सवाल-5: क्या डी-डॉलराइजेशन पॉसिबल है, अगर हां तो किस हद तक? जवाब: अमेरिकी अर्थशास्त्री साइमन हंट मानते हैं कि अगले 2 साल में BRICS की करेंसी या सिस्टम अमेरिकी डॉलर को टक्कर देगी। जानकार मानते हैं कि BRICS देश किसी एक करेंसी को लेकर सहमत नहीं होंगे। हालांकि, वो एक पेमेंट सिस्टम बना सकते हैं या अपनी-अपनी करेंसी में ट्रेड करने के लिए तैयार हो सकते हैं।

प्रो. राजन कुमार के मुताबिक फिलहाल पूरी तरह से डी-डॉलराइजेशन करना संभव नहीं है। वो कहते हैं,

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अगर BRICS देशों में नेशनल करेंसी में ट्रेड होता भी है तो उसकी वैल्यू का आधार डॉलर को ही बनाया जाता है। यानी रूस और चीन के बीच ट्रेड होता है तो रूबल और युआन की वैल्यू डॉलर के आधार पर तय की जाती है। अगर BRICS देश पेमेंट का कोई सिस्टम बना भी लेते हैं; तो उससे डॉलर के इस्तेमाल में कमी आएगी, न कि पूरी तरह से डी-डॉलराइजेशन हो जाएगा।

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सवाल-6: क्या डी-डॉलराइजेशन से अमेरिका तबाह हो जाएगा? जवाब: मजबूत डॉलर और इकोनॉमी के दम पर अमेरिका दुनियाभर में अपना दबदबा कायम करता है। जब भी कोई देश उसे किसी भी तरह से चुनौती देता है, तो अमेरिका उस देश पर प्रतिबंध लगा देता है। ऐसा कर अमेरिका देशों के व्यापार से लेकर उनकी विदेश नीति तक को प्रभावित करता है।

डी-डॉलराइजेशन देशों के बीच पावर बैलेंस को बदल सकता है। साथ ही यह नए तरह से ग्लोबल इकोनॉमी और मार्केट को आकार देगा। इससे अमेरिका प्रभावित होगा।

डोनाल्ड ट्रम्प डी-डॉलराइजेशन को अमेरिका के लिए बड़ा खतरा मानते हैं। उन्होंने एक चुनावी रैली में कहा था कि जो देश डॉलर का साथ छोड़ेंगे, उन पर 100% टैरिफ लगा दिया जाएगा।

राजन कुमार बताते हैं, ‘दुनियाभर में डॉलर में होने वाला ट्रेड BRICS देशों के ट्रेड से कई गुना ज्यादा है। ऐसे में अगर BRICS कोई करेंसी या सिस्टम लाता है तो भी उससे डॉलर की वैल्यू पर ज्यादा असर नहीं होगा।’

जेपी मॉर्गन में स्ट्रैटेजिक रिसर्चर एलेक्जेंडर वाइस कहते हैं, ‘डी-डॉलराइजेशन से अमेरिकी बाजारों में डिसइन्वेस्टमेंट और भरोसे में गिरावट हो सकती है, जिससे मुनाफा घटेगा। साथ ही इंटरनेशनल रिजर्व में डॉलर में कमी आएगी या दूसरी करेंसी में ज्यादा रिजर्व रखा जाएगा।

सवाल-7: ट्रम्प टैरिफ को हथियार की तरह क्यों इस्तेमाल कर रहे हैं? जवाबः टैरिफ दूसरे देशों से एक्सपोर्ट किए गए प्रोडक्ट्स पर लगाए जाने वाला टैक्स है। इसे घटा-बढ़ाकर ही देश आपस में व्यापार को कंट्रोल करते हैं। प्रोडक्ट्स इम्पोर्ट करने वाला देश टैरिफ इसलिए लगाता है, ताकि बाहर से आए सामान के मुकाबले देश में बने सामान की कीमत कम रह सके। तय टैक्स से ज्यादा टैरिफ ना लगाया जा सके, इसके लिए सभी देश विश्व व्यापार संगठन के साथ बातचीत कर एक बाउंड रेट तय करते हैं।

अमेरिका को अपनी मजबूत करेंसी यानी डॉलर के चलते बाकी देशों से खरीदे प्रोडक्ट्स सस्ते पड़ते हैं। इसलिए अमेरिका एक्सपोर्ट की जगह ज्यादा सामान इम्पोर्ट करता है। इसी के चलते कई देशों के विदेशी व्यापार में अमेरिका बड़ी भूमिका निभाता है।

ब्यूरो ऑफ इकोनॉमिक एनालिसिस की रिपोर्ट के मुताबिक सितंबर 2024 में अमेरिका ने लगभग 30 लाख करोड़ रुपए (352 बिलियन डॉलर) से ज्यादा का इम्पोर्ट किया है।

अगर अमेरिका 100% टैरिफ लगा देता है, तो अमेरिकी बाजार में कई देशों का सामान दोगुने दामों में बिकने लगेगा। इससे इन सामानों की ब्रिकी कम हो सकती है। इससे कई देशों के विदेशी निर्यात पर असर पड़ेगा। इसी के चलते टैरिफ को हथियार की तरह इस्तेमाल किया जाता है।

सवाल-8: अगर अमेरिका ने 100% टैरिफ लगाया तो भारत पर इसका क्या असर पडेगा? जवाबः भारत अपना 17% से ज्यादा विदेशी व्यापार अमेरिका से करता है। अमेरिका भारतीय एग्रीकल्चर प्रोडक्ट्स जैसे फल और सब्जियों का सबसे बड़ा खरीदार है। 2024 में अमेरिका ने भारत से 18 मिलियन टन चावल भी इम्पोर्ट किया है। ऐसे में अगर अमेरिका 100% टैरिफ लगाता है तो अमेरिकी बाजारों में भारतीय प्रोडक्ट्स भी दोगुनी कीमत पर बिकने लगेंगे। इससे अमेरिकी जनता के बीच इसकी डिमांड कम हो जाएगी।

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दूसरे विश्वयुद्ध तक ज्यादातर देशों के पास जितना सोने का भंडार होता था, वो उतनी ही वैल्यू की करेंसी जारी करते थे। 1944 में दुनिया के 44 देशों के डेलिगेट्स मिले और अमेरिकी डॉलर के मुकाबले सभी करेंसी का एक्सचेंज रेट तय किया, क्योंकि उस वक्त अमेरिका के पास सबसे ज्यादा सोने का भंडार था और वो दुनिया की सबसे बड़ी और स्थिर अर्थव्यवस्था था। पूरी खबर पढ़े…

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