[ad_1]
- Hindi News
- Opinion
- Abhijit Mitra Iyer’s Column Ukraine And Europe Cannot Do Anything On Their Own
4 घंटे पहले

- कॉपी लिंक
अभिजीत अय्यर मित्रा,सीनियर फेलो, आईपीसीएस
व्हाइट हाउस में ट्रम्प-जेलेंस्की तकरार के बाद रविवार को ईयू के नेताओं ने उनसे आपातकालीन शिखर सम्मेलन के लिए मुलाकात की। लेकिन इस बैठक के नतीजों को सिफर ही कहा जा सकता है। तथ्य यह है कि ब्रिटिश और जर्मन सेनाएं न्यूयॉर्क पुलिस विभाग के आकार के बराबर हैं। फ्रांसीसी सेना इससे थोड़ी ही बड़ी है।
नाटो में अमेरिका के दमखम की ही तूती बोलती थी। ऐसे में सवाल उठता है कि अमेरिकियों से रार ठानते समय जेलेंस्की क्या सोच रहे थे। इससे भी बदतर यह कि यूरोपियनों के दिमाग में क्या खिचड़ी पक रही थी, जो वो आग में घी डालने का काम कर रहे थे?
अब नाटो के लिए अमेरिका का समर्थन खासा घट जाएगा। और इसके लिए नाटो ही जिम्मेदार है। जर्मन विदेश मंत्री एनालेना बैरबॉक ने अमेरिका को उसके ‘नापाक इरादों’ के लिए जिम्मेदार ठहराते हुए कहा कि यूरोप अमेरिकियों के बिना भी आगे बढ़ सकता है। इसी तरह की बात ईयू की विदेश नीति प्रमुख काजा कल्लास ने भी कही। यूरोपीय लोग यह नहीं समझ पा रहे हैं कि ये तमाम बातें ट्रम्प के लिए पूरी तरह से उपयुक्त हैं।
अमेरिका का मुख्य प्रतिद्वंद्वी चीन है, न कि रूस। रूस उसके लिए मुश्किलें खड़ी करने वाला हो सकता है, लेकिन प्रतिस्पर्धी नहीं। हालांकि यूरोप के लिए रूसी खतरे की बात करना इसलिए जरूरी है, ताकि अमेरिका की दिलचस्पी यूरोप में बनी रहे और अमेरिका अपने करदाताओं के पैसों को यूरोप में झोंकता रहे। जबकि खुद यूरोप इस रकम को अपनी वेलफेयर योजनाओं पर खर्च करता है।
अब यह स्थिति समाप्त हो गई है। न केवल जेलेंस्की ने हदें लांघी, बल्कि यूरोप ने भी अपनी क्षमताओं से बढ़-चढ़कर दावे कर दिए हैं। हकीकत यह है कि ये दोनों अमेरिका के बिना कुछ नहीं कर सकते। अगर यूरोप आज रूस से मुकाबला करना चाहता है तो उसे पहले 10-15 वर्षों तक औद्योगीकरण करना होगा और 500 अरब डॉलर से अधिक की रकम केवल उन पिछले 20 वर्षों की भरपाई के लिए खर्च करनी होगी, जब उसने डिफेंस में पैसा नहीं लगाया था।
अमेरिका के लिए यह मनचाही स्थिति होगी। यूरोप अपना डिफेंस बजट बढ़ाएगा तो अमेरिकी करदाताओं को कम खर्च करना होगा। दूसरे, ट्रम्प किसी भी समय बातचीत की टेबल पर आ सकते हैं और कह सकते हैं कि वे रूस-यूक्रेन शांति समझौते का समर्थन करने के लिए तैयार हैं।
हालांकि यूरोंपियनों को यह बात पसंद नहीं आएगी कि यूक्रेन के खनिजों पर ट्रम्प नजरें गड़ाए हैं। आज रूस से बड़ा तेल, गैस, हीरे या खनिजों का आपूर्तिकर्ता कोई नहीं है। चीन को दुश्मन नंबर वन मानने वाले ट्रम्प को यूरोप से ज्यादा रूस की जरूरत है। दूसरी तरफ यूरोप- जो रूस को अपना सबसे बड़ा दुश्मन मानता है- अगर अमेरिका को सहयोगी के रूप में खो देता है, तो वह अपने आप चीन से जुड़ जाएगा।
क्या यह संभव है कि अमेरिका चीन को रोकने के लिए नाटो को छोड़कर रूस के साथ गठबंधन कर ले और यूरोप रूस को रोकने के लिए चीन के साथ लामबंद हो जाए? हां, अगर यूरोप इसी राह पर चलता रहा तो। यूरोप चाहे तो 19वीं सदी की अपनी महानता के भ्रम को पालना जारी रख सकता है।
लेकिन यह याद रखने योग्य है कि यूरोप की सबसे अमीर और शक्तिशाली अर्थव्यवस्था जर्मनी की प्रति व्यक्ति जीडीपी अमेरिका के सबसे गरीब राज्यों- अलाबामा और मिसौरी के करीब है। अन्य बड़ी यूरोपीय अर्थव्यवस्थाएं, जैसे यूके, फ्रांस और इटली तो किसी भी अमेरिकी राज्य की तुलना में गरीब हैं। लेकिन यूरोप को इसका एहसास नहीं है।
अगर भारत चाहे तो इस अवसर का लाभ उठा सकता है। रूस और अमेरिका का साथ आना हमारे लिए उपयुक्त होगा। पिछले 70 वर्षों से भारत की विदेश नीति का प्रमुख लक्ष्य चीन और रूस के किसी भी गठबंधन को तोड़ना रहा है।
इस बार भारत के लिए सफल होना अधिक महत्वपूर्ण है, क्योंकि 2025 का चीन 1960 के दशक की तुलना में कहीं अधिक शक्तिशाली है। लेकिन समस्या यह है कि इस तरह का गठबंधन यूरोप और चीन को करीब ले आएगा।
इस खतरे से निपटने का रास्ता है किसी भी संभावित अमेरिकी-रूसी गठबंधन में शामिल होना, जिसमें अगर चीन भारत पर हमला करने के बारे में सोचता है, तो वह एक अर्थ में रूस और अमेरिका पर एक साथ हमला करने जैसा होगा। लेकिन मुख्य सवाल यह है कि हम कब तक दूसरों पर निर्भर रहेंगे?
हम मैन्युफैक्चरिंग-क्रांति और तीव्र-औद्योगीकरण के युग में प्रवेश करने का फैसला कब करेंगे? जब तक हम चीन जैसी औद्योगिक ताकत नहीं बन जाते, हम दूसरी बड़ी ताकतों के लिए आसान शिकार ही साबित होते रहेंगे।
यूरोप चाहे तो 19वीं सदी की अपनी महानता के भ्रम को पालना जारी रख सकता है। लेकिन यूरोप की सबसे अमीर और शक्तिशाली अर्थव्यवस्था जर्मनी की प्रति व्यक्ति जीडीपी अमेरिका के गरीब राज्यों अलबामा और मिसौरी जितनी है। (ये लेखक के अपने विचार हैं)
[ad_2]
अभिजीत मित्रा अय्यर का कॉलम: यूक्रेन और यूरोप अपने दम पर कुछ नहीं कर सकते