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अभिजीत अय्यर मित्रा का कॉलम: ना तो मदद की जरूरत थी और ना ही हमने मदद मांगी Politics & News

अभिजीत अय्यर मित्रा का कॉलम:  ना तो मदद की जरूरत थी और ना ही हमने मदद मांगी Politics & News

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3 घंटे पहले

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अभिजीत अय्यर मित्रा,सीनियर फेलो, आईपीसीएस​​​​​​​​​​​​​​

क्या सच में ही भारत पाकिस्तान से हुए संघर्ष में अकेला पड़ गया था? क्या आईएमएफ हमारे खिलाफ था? क्या हमारी कूटनीति विफल रही? क्या अमेरिका ने हमारा साथ नहीं दिया और क्या रूस, इजराइल और फ्रांस ने हमें अकेला छोड़ दिया? ये सवाल आज चारों ओर घूम रहे हैं। लेकिन सबसे पहले हमें समझना होगा कि भारत ने दुनिया से मदद मांगी ही नहीं थी।

भारत यूक्रेन की तरह अपने से कई गुना बड़े पड़ोसी देश से नहीं लड़ रहा था। न ही वह इजरायल जैसा छोटा देश है- जो हरियाणा के आधे आकार का है और जिसकी आबादी अहमदाबाद से भी कम है। इसके उलट भारत पाकिस्तान से आकार में 4 गुना और आबादी में 6 गुना बड़ा है। वह दुनिया की एक बड़ी अर्थव्यवस्था भी है।

हम गोला-बारूद और मिसाइलों के विशाल युद्ध-भंडार और एक बड़ी स्थायी सेना को बनाए रख सकते हैं। और 1960 के दशक के विपरीत इस बार हम खाद्य-सहायता के लिए भी दुनिया पर निर्भर नहीं थे। शायद भारत के ​लिए एक ही चीज की कमी थी- वैश्विक नेताओं द्वारा समर्थन में सार्वजनिक बयान। लेकिन इसके लिए हमें समझना होगा कि पहलगाम हमले का पैमाना- जिसमें 26 लोग मारे गए थे- रूस-यूक्रेन युद्ध की शुरुआत या इजराइल पर हमास के हमले की तुलना में काफी बड़ा नहीं था। प्रश्न उठता है कि जब भारत ने पाकिस्तान में आतंकी​ ठिकानों पर स्ट्राइक की तो दुनिया ने इस पर अधिक शोर क्यों नहीं मचाया?

इसके कई कारण हैं। पहला यह कि अगर भारत ने समर्थन मांगा होता, तो उसे बड़ी कीमत चुकानी पड़ती। इसके लिए ही जेलेंस्की को व्हाइट हाउस में सार्वजनिक रूप से अपमानित होना पड़ा था। अमेरिका पर अत्यधिक निर्भरता के चलते ही इजराइल को दो बार सीजफायर करना पड़ा, ज​बकि उसका ऐसा कोई इरादा नहीं था।

इजराइल को तो वैश्विक जनमत का समर्थन मांगने के बावजूद बदले में अपने खिलाफ सबसे संगठित अंतरराष्ट्रीय अभियान मिला, जिसमें उसके पुराने यूरोपीय सहयोगियों ने भी उस पर युद्ध-अपराध और नरसंहार का आरोप लगाया। हेग में अंतरराष्ट्रीय न्यायालय ने उसके खिलाफ फैसला सुनाया। नेतन्याहू की विदेश यात्राएं भी उनके खिलाफ जारी किए गए अंतरराष्ट्रीय वारंट के कारण बहुत कम हो गई हैं। वास्तव में, दुनिया में कोई भी समर्थन मुफ्त नहीं मिलता।

1971 में रूस- जिसके साथ हमने उसी साल आपसी रक्षा समझौते पर हस्ताक्षर किए थे- ने पश्चिमी सेक्टर में ऑपरेशन रोकने के लिए हम पर बहुत दबाव डाला था। अमेरिकियों ने बंगाल की खाड़ी में अपना 7वां बेड़ा भेज दिया था। चीनियों ने सीमावर्ती राज्यों में सेनाएं भेजने की धमकी दी और उन्हें केवल इस तथ्य ने रोका कि युद्ध दिसंबर में लड़ा गया था और हिमालय पर भारी बर्फबारी हो रही थी।

संयुक्त राष्ट्र महासभा ने 104 से 11 के बहुमत से युद्ध विराम के लिए मतदान किया। 1999 में भी हम आर्थिक महाशक्ति नहीं थे और 1998 के परमाणु परीक्षणों के बाद प्रतिबंधों से जूझ रहे थे। लेकिन 2025 में ऐसा कुछ नहीं हुआ। केवल तुर्किये और अजरबैजान ने ही पाकिस्तान का समर्थन किया। अजरबैजान ने इसलिए, क्योंकि हमने पिछले साल यूक्रेन के साथ एक बड़े हथियार सौदे की घोषणा करके उसे नाराज कर दिया था।

चीन ने आतंकी हमले की निंदा की, लेकिन पाकिस्तान को वित्तीय सहायता नहीं दी। अतीत के विपरीत उसने सुरक्षा परिषद या संयुक्त राष्ट्र की आमसभा में भारत के खिलाफ कोई प्रस्ताव नहीं रखा। तब असली मुद्दा अमेरिका और आईएमएफ का बन जाता है।

तथ्य यह है कि भारत और पाकिस्तान दोनों ही परमाणु शक्तियां हैं और अमेरिका परमाणु मुद्दों के प्रति बहुत संवेदनशील है। किराना हिल्स में पाकिस्तान के कथित परमाणु स्थल पर भारत के हमले ने चीजों को बदल दिया।

साइट से रैडिएशन की खबरें सामने आईं, जिसे आईएमएफ नजरअंदाज नहीं कर सकता था। अमेरिका को भी इसमें शामिल होना पड़ा, क्योंकि वह किसी बड़े पैमाने पर युद्ध का जोखिम नहीं उठा सकता था। पाकिस्तानियों ने भी खतरे को बढ़ा-चढ़ाकर पेश किया।

आईएमएफ ने पाकिस्तान को 2.3 अरब डॉलर का कर्ज दिया, जिसमें से 1 अरब डॉलर को तत्काल जारी करने के लिए मंजूरी दी गई। पहलगाम हमले से कई हफ्ते पहले ही कर्ज जारी करने की अनुमति अमेरिका ने दे दी थी और तत्काल 1 अरब डॉलर जारी करने की शर्त भी पाकिस्तान द्वारा भारत पर जवाबी हमला न करने की शर्त पर रखी गई थी। तो बात यह नहीं है कि युद्ध में भारत अकेला था, बल्कि यह है कि उसे न तो किसी की मदद की जरूरत थी, न ही उसने मदद मांगी थी।

अगर भारत ने समर्थन मांगा होता, तो उसे इसकी कीमत चुकानी पड़ती। इसके लिए ही जेलेंस्की को व्हाइट हाउस में अपमानित होना पड़ा था। दूसरे, भारत अब पहले की तरह गरीब और कमजोर देश नहीं है, जिसे मदद की दरकार हो। (ये लेखक के अपने विचार हैं।)

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