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- Abhay Kumar Dubey’s Column It Is Becoming Difficult To Defeat The Parties That Have Established Themselves In Power
अभय कुमार दुबे, अम्बेडकर विवि, दिल्ली में प्रोफेसर
महाराष्ट्र और झारखंड का अनुभव हमारे सामने विधानसभा चुनाव लड़ने और जीतने का एक मॉडल पेश करता है। इसे तीन हिस्सों में समझा जा सकता है। पहला, मतदाताओं के बड़े हिस्से के खाते में सीधे-सीधे छोटी-छोटी रकमें (‘रेवड़ियां’) डालने की योजना को चुनाव से कुछ महीने पहले से लागू कर दिया जाए।
दूसरा, अपने कार्यकर्ताओं और समर्थन-आधार में जोश पैदा करने के लिए एक आक्रामक लेकिन आकर्षक नारा दिया जाए। तीसरा, चुनाव का बारीकी और सफाई से प्रबंधन किया जाए और जमकर हर तरह के संसाधन (नकदी समेत) उसमें झोंके जाएं।
इस मॉडल की खास बात यह है कि यह उन पार्टियों के लिए ज्यादा मुफीद साबित होता है, जो चुनाव के समय सत्ता में होती हैं। सत्ता को चुनौती दे रही विपक्षी पार्टियों के सामने दिक्कत यह रहती है कि वे योजनाओं का आश्वासन भर दे सकती हैं, लेकिन मतदाताओं को वह पार्टी भाती है जो हाथ में पैसा दे रही होती है।
इस लिहाज से चुनाव जीतने का यह मॉडल एंटी-इनकम्बेंसी को पलट देने का मॉडल भी है। हां, जब किसी सरकार की छवि बहुत खराब होती है तो यह मॉडल नहीं चलता। जैसे कि कर्नाटक, हिमाचल प्रदेश और तेलंगाना में यह नहीं चला था।
लेकिन इस मॉडल का मतलब यह नहीं है कि इसे यांत्रिक रूप से लागू करके सफलता हासिल की जा सकती है। चतुराई, लचीलेपन और दूरंदेशी की जरूरत हर चुनाव में पड़ती है। रणनीतिक गलतियों का खामियाजा हर पार्टी को उठाना पड़ता है, भले ही वह कितनी भी विशाल, संसाधन-सम्पन्न और समर्पित कार्यकर्ताओं से भरी हुई क्यों न हो।
मसलन, झारखंड में भाजपा ने चुनाव से पहले एक ‘ईडी-एडवेंचर’ किया था। मनी-लॉन्ड्रिंग के एक मामले में मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन को पकड़ कर जेल में डाल दिया गया था। अगर भाजपा ने यह रणनीतिक गलती न की होती तो सोरेन को आदिवासी अस्मिता का नारा देने का मौका न मिलता, और उनके पांच साल के शासन की एंटी-इनकम्बेंसी को भुनाने में भाजपा कामयाब हो जाती।
भाजपा की दूसरी गलती मुसलमान घुसपैठियों द्वारा झारखंड की आबादीमूलक संरचना बदलने का आरोप लगाने से जुड़ी थी। यह नारा नहीं चला। सोरेन ने मैया सम्मान योजना के जरिए हजारों परिवारों में एक हजार रुपए प्रति माह बांटे।
भाजपा ने भी अपनी तरफ से ऐसी ही योजना की घोषणा की, पर आदिवासी अस्मिता और हाथ में आ रही रकम पर लोगों ने ज्यादा भरोसा किया। झामुमो ने 2019 से बेहतर परिणाम दे दिया। महाराष्ट्र में भाजपा सत्ता में थी। वहां के मतदाताओं ने लाडकी बहिन योजना पर ज्यादा भरोसा किया, बावजूद इसके कि विपक्षी मोर्चा इस योजना में मिल रहे 1500 रु. से दोगुना देने का वायदा कर रहा था।
तीन महीने से सरकार 94,000 परिवारों में यह मदद पहुंचा रही थी। यहां तक कि मतदाताओं को खुश करने के लिए दीपावली बोनस तक दिया गया। भाजपा ने अपने कार्यकर्ताओं और पारम्परिक जनाधार को उत्साहित करने के लिए ‘बटेंगे तो कटेंगे’, ‘एक हैं तो सेफ हैं’ और ‘वोट जिहाद’ जैसी फिकरेबाजी भी जमकर की।
संसाधनों का खुले हाथ से इस्तेमाल किया गया। बूथ-प्रबंधन की भाजपाई मशीनरी की अहम भूमिका रही। इसके विपरीत महा विकास अघाड़ी की कहानी रणनीतिक गलतियों से भरी रही। कांग्रेस के रणनीतिकारों को लगा कि लोकसभा चुनाव में सफल हो चुकी तरकीब विधानसभा चुनाव में भी चल जाएगी। इसलिए उनका फोकस संविधान-सभाएं करने और जातिगत जनगणना की मांग बुलंद करने पर रहा। उनके पास कहने के लिए नया कुछ नहीं था।
1500 रु. महीने का मतलब हुआ प्रति दिन महज 50 रु.। इसी तरह हजार रुपए महीने का अर्थ प्रतिदिन केवल 33.33 रु. हुआ। इससे पता चलता है कि भारत के ज्यादातर मतदाता कितने गरीब हैं। इतनी छोटी रकम से भी वे राहत महसूस करते हैं।
दूसरे, लाभार्थी योजनाओं का अनुभव बताता है कि जब योजना नई होती है तो उसके लाभार्थी मदद देने वाली सरकारी पार्टी के प्रति कृतज्ञता अनुभव करते हैं। लेकिन जब योजना पुरानी हो जाती है तो वे उस तत्परता से बदले में वोट नहीं देते।
लोकसभा चुनाव और 2022 में यूपी चुनाव में भाजपा इस मुश्किल का सामना कर चुकी है। एक लाभार्थी योजना एक चुनाव में ही वोट दिला सकती है। वहीं, जिन स्त्रियों को 50 रु. देने के बदले वोट लेकर सत्ता कायम रखी गई है, वे राजनीतिक सशक्तीकरण के लिए तरस रही हैं। महाराष्ट्र के सदन में पिछली बार महिला विधायक 24 थीं, जो इस बार घटकर 22 रह गई हैं।
यह दौर ‘एंटी-इनकम्बेंसी’ नहीं, बल्कि ‘प्रो-इनकम्बेंसी’ का है। सत्ता में कदम जमा चुकी पार्टियों का तख्ता पलटना मुश्किल होता जा रहा है। महाराष्ट्र- झारखंड में यही हुआ, हालांकि यह मॉडल हमेशा ही कारगर नहीं होता है। (ये लेखक के अपने विचार हैं)
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