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अभय कुमार दुबे का कॉलम: रेवड़ियां अब न उगलते बन रही हैं और न ही निगलते Politics & News

अभय कुमार दुबे का कॉलम:  रेवड़ियां अब न उगलते बन रही हैं और न ही निगलते Politics & News

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10 घंटे पहले

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अभय कुमार दुबे, अम्बेडकर विवि, दिल्ली में प्रोफेसर

जो रेवड़ियां पहले बांटने वालों और पाने वालों, दोनों को मीठी लगती थीं, वे अब कसैली लगने लगी हैं। मसला राजनीतिक और आर्थिक है। जो रेवड़ी पाते थे, उन्हें लग रहा है कि बांटने का वायदा करने वाले अब अपनी बात से मुकरने के लिए तरह-तरह के हथकंडों का इस्तेमाल करने लगे हैं। उन्हें ठगे जाने का एहसास हो रहा है।

वायदे के बदले वोट तो ले लिए गए लेकिन बांटने का नम्बर आने पर छांटा-बीनी, कटौती और देर-दार की जा रही है। रेवड़ियां बांटने वालों की समस्या और भी विकट है। वे इस सवाल का सामना कर रहे हैं कि कहीं उन्हें दोहरे घाटे का सामना तो नहीं करना पड़ेगा? यह कि बदले में वोट भी पूरे न मिलें, और अर्थव्यवस्था का दिवाला भी निकल जाए।

2014 से लाभार्थियों का जो संसार बनाया जा रहा था, उसकी चमक अब पहले जैसी नहीं रह गई है। लाभार्थियों की यह दुनिया राजनीतिक फायदे देने के लिहाज से संदिग्ध हो गई है, और आर्थिक नजरिये से इसे बनाए रखना मुश्किल होता जा रहा है। ताजा मिसाल दिल्ली की है।

भाजपा ने राजधानी की महिला नागरिकों को ढाई हजार रु. प्रतिमाह देने का वादा किया था। नई सरकार ने पाया कि 38 लाख महिलाओं को ये रेवड़ियां मिलेंगी। लेकिन जब पहला बजट आया तो इस काम के लिए सिर्फ 5,100 करोड़ रु. ही रखे गए। इतनी रकम में तो आधी महिलाओं को ही रकम का वितरण हो पाएगा।

इतने आवंटन के लिए भी सरकार को अपने लघु बचत कोष में से 15 हजार करोड़ निकालने पड़े, बावजूद इसके कि केंद्रीय वित्त मंत्रालय इसके सख्त िखलाफ है। अब बाकी महिलाओं का क्या होगा? अभी इस विषय में किसी को कुछ नहीं मालूम है। न देने वालों को, न पाने वालों को।

पंजाब में तो आप सरकार ने चुनाव में इस प्रकार का जो वादा किया था, वह आज तक पूरा करने की शुरुआत भी नहीं की गई है। मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र, तेलंगाना- सरकार किसी भी पार्टी की क्यों न हो, हर प्रदेश में कमोबेश ऐसी ही स्थितियां हैं।

खास बात यह है कि चुनाव-विश्लेषकों के मुताबिक दिल्ली की महिलाओं के वोट जीतने वाली भाजपा के बजाय हारने वाली आप को अपेक्षाकृत ज्यादा मिले हैं। यानी, वोट तो पूरे मिले नहीं, लेकिन रेवड़ियां किसी न किसी प्रकार पूरी ही बांटनी होंगी। रेवड़ियों के बदले वोटों की गारंटी न होने की बात पार्टियों और नेताओं को 2022 में ही समझ आ गई थी।

यूपी भाजपा ने प्रधानमंत्री कार्यालय को भेजी अपनी चुनाव-समीक्षा रपट में स्वीकार कर लिया था कि रेवड़ी बांटने की स्कीमों के लाभार्थियों ने सरकार की जुबानी तारीफें तो खूब कीं, लेकिन वोट उतने नहीं मिले, जितनी उम्मीद थी। पर यूपी सरकार भी वादे के मुताबिक रेवड़ियां बांटने के लिए मजबूर है।

लाभार्थियों की ऐसी दुनिया बनाने का यह विचार किसी भारतीय नेता या पार्टी की देन न होकर अमेरिका में बैठे उन बाजारवादी अर्थशास्त्रियों के दिमाग की उपज है, जिन्होंने नई सदी के शुरुआती सालों में ही यह सोचना शुरू कर दिया था कि नव-उदारवादी सरकारों को लोगों की नाराजगी से कैसे बचाया जा सकता है।

इन अर्थशास्त्रियों को अच्छे से पता था कि 90 के दशक की शुरुआत से ही चल रहे भूमंडलीकरण के कारण जल्द ही अर्थव्यवस्थाएं लोगों को रोजगार देने में उत्तरोत्तर नाकाम हो जाने वाली हैं। नई तकनीक के कारण हो रहा ऑटोमेशन पूरी व्यवस्था को इसी तरफ ले जाने वाला है। बाजार के जरिये दाम निर्धारित करने की नीति के कारण महंगाई पर भी लगाम लगाने में सरकारें नाकाम होंगी। देर-सबेर नाराजगी बढ़नी ही है।

इसलिए पूंजी की सेवा करने वाले इन बुद्धिजीवियों ने पहले हर वयस्क नागरिक के लिए यूनिवर्सल बेसिक इनकम मुहैया कराने के बारे में विचार किया। लेकिन हर सरकार इसे लागू नहीं कर सकती थी। मनमोहन सिंह भी इसके लिए तैयार नहीं थे। लेकिन, वे इन विशेषज्ञों के इस सुझाव पर राजी थे कि लोगों को डायरेक्ट बेनेफिट ट्रांसफर के जरिये आर्थिक राहत दी जा सकती है।

इससे उनकी नाराजगी बढ़ने से रुकेगी, और कॉर्पोरेट पूंजी बेरोकटोक मुनाफा कमाने की तरफ बढ़ती चली जाएगी। मनमोहन इस तरह का बंदोबस्त करते, उससे पहले ही कांग्रेस 2014 में हार गई। लेकिन, नई सरकार ने अपना पहला कदम जनधन खाते खुलवाने के रूप में उठाया। इन्हीं खातों में डायरेक्ट बेनेफिट का ट्रांसफर होना था। (ये लेखक के अपने विचार हैं)

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