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- Abhay Kumar Dubey’s Column Three Examples Of The Strategy Working Behind Politics
अभय कुमार दुबे, अम्बेडकर विवि, दिल्ली में प्रोफेसर
राजनीति सफल ही तब होती है, जब कुशल रणनीति बनाई जाती है। लेकिन हम राजनीति के रणनीतिक पहलुओं पर गम्भीरता से विचार नहीं करते। मीडिया में उन्हें महज ‘मास्टर स्ट्रोक’ कहकर काम चला लिया जाता है। लेकिन ‘मास्टर स्ट्रोक’ तो एक चतुराई भरी चाल ही हो सकती है, रणनीति बहुत से मास्टर स्ट्रोकों से मिल कर बनती है।
2016 में की गई नोटबंदी एक ऐसा कदम था, जिसके अपने आर्थिक-सामाजिक-मनोवैज्ञानिक- राजनीतिक-सांगठनिक आयाम थे। इनका मकसद फौरी के साथ-साथ दूरगामी भी था। नोटबंदी से पैदा हुई तकलीफदेह अफरातफरी के जरिए दो विधानसभा चुनावों (दिल्ली और बिहार) में हुई पराजय से भाजपा नेतृत्व पर छाए शंका के बादलों को चर्चा से बाहर करने का फौरी लक्ष्य वेधा गया था।
तब प्रधानमंत्री मोदी ने समाज में अमीर-गरीब के वर्ग-विभाजन को तीखा करते हुए खुद को दरिद्रों के नजदीक दिखाया था। साथ में आर्थिक-विनिमय के एक सर्वथा नए कैशलैस पहलू को स्थायी रूप से जन्म भी दे दिया था। लेकिन आज मोदी नोटबंदी की बात नहीं करते, क्योंकि उन्हें अब उसकी जरूरत नहीं रही। नोटबंदी को जो करना था, वह हो चुका है।
अरविंद केजरीवाल ने जेल से निकलते ही मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा देकर ऐसी ही चौमुखी रणनीति को गतिशील किया है। वे भी मोदी की ही तरह एक परिष्कृत रणनीतिक-मानस के धनी हैं। इस्तीफा देने के पीछे अपनी छवि, पार्टी की छवि और दिल्ली सरकार की छवि के आमूलचूल नवीकरण का ति-तरफा लक्ष्य है।
इन तीनों छवियों में पिछले 12 सालों में पुरानापन आ गया था। ऊपर से भाजपा और केंद्र सरकार द्वारा पिछले डेढ़ साल से चलाए जा रहे भ्रष्टाचार के आरोपों व गिरफ्तारी के सघन अभियान से इस पुरानेपन को दुर्गंध में बदलने की नियोजित कोशिश की जा रही थी।
कुछ नया और अनपेक्षित करना जरूरी था। केजरीवाल न केवल फिजा बदलना चाहते हैं, बल्कि दो व्यक्तियों (केजरीवाल और सिसोदिया) के नेतृत्व में सीमित अपनी युवा और विकसित हो रही पार्टी को सक्षम नेतृत्वकारी कतार की दूसरी पंक्ति भी देना चाहते हैं।
अगर अरविंद का मकसद सफल हुआ तो उनका समर्थन करने वाले अधिसंख्य मतदाताओं को एक बार फिर वही ‘एक्टिविस्ट’ नेता दिखेगा, जिसने राजनीति में नई जमीन तोड़ने का वादा करते हुए प्रवेश किया था। उनके इसी ‘एक्टिविस्ट’ पुनरावतार से भाजपा चिंतित है और अंदाजा लगाने की कोशिश कर रही है कि इसका असर क्या होगा।
केजरीवाल जानते हैं कि उनकी राजनीति का लांचिंग पैड दिल्ली है, भले ही इसकी विधानसभा एक म्युनिस्पैलिटी में घटा दी गई हो। वे दिल्ली का दंगल 2015 और 2019 से कमतर जीतने से होने वाले नुकसान को झेलने के लिए तैयार नहीं हैं। इसीलिए इस्तीफे वाले भाषण में उन्होंने हरियाणा का नाम तक नहीं लिया था, जबकि वे हरियाणा के ही हैं और वहां उनकी पार्टी हर सीट पर लड़ रही है। उनका फोकस दिल्ली पर है और फिलहाल रहेगा।
एक और रणनीति है, जो हाल में गतिशील की गई है। इसके केंद्र में तिरुपति के महाप्रसादम् के लड्डुओं में पशुओं की चर्बी मिलाने का विवाद है। इस बहुमुखी रणनीति का संचालन एक नहीं दो पार्टियों के हाथ में है। भाजपा और टीडीपी : दोनों ही एनडीए में हैं।
लक्ष्य भी दोहरे हैं। टीडीपी चाहती है कि उसके प्रमुख प्रतिद्वंद्वी जगन मोहन रेड्डी (जो मजहब से ईसाई हैं) पर किसी न किसी प्रकार हिंदू-विरोधी होने का आरोप चस्पा हो जाए। जगन के पिता राजशेखर रेड्डी के खिलाफ चंद्रबाबू नायडू ने दस साल तक यह कोशिश चलाई थी, पर कामयाब नहीं हुए। तो क्या यह पूरा प्रकरण एक राजनीतिक चाल है?
देखने की बात यह है कि देश की सबसे बड़ी केंद्र सरकार द्वारा चालित फोरेंसिक लेबोरेटरी हैदराबाद में है, पर नायडू ने लड्डुओं के सैम्पल की जांच गुजरात की एक प्रयोगशाला से करवाई। जांच-रपट के मुख्य हिस्से में इस मिलावट का कोई जिक्र नहीं है।
उसके साथ नत्थी ‘अनेक्स्चर’ में है, पर रपट यह नहीं बताती कि मिलावट की मात्रा क्या है। यह रपट तो नायडू के पास जुलाई के मध्य में आ गई थी। जाहिर है कि उन्होंने कुछ सोचकर ही पहले इसे ठंडे बस्ते में डाला और फिर 19 सितम्बर को जारी किया।
भाजपा की दिलचस्पी इसमें इसलिए है, क्योंकि केंद्र में बहुमत खोने के बाद से ही वह कोई ऐसा ट्रिगर पाइंट तलाश रही है, जिसके जरिए उसे ध्रुवीकरण को तीखा करने और नए चरण में ले जाने का मौका मिले। बांग्लादेश में हिंदुओं पर अत्याचार में भी उसने यह खोजने की कोशिश की थी, पर नहीं मिला।
हम राजनीति के रणनीतिक पहलुओं पर गम्भीरता से विचार नहीं करते। मीडिया में उन्हें महज ‘मास्टर स्ट्रोक’ कहकर काम चला लिया जाता है। जबकि एक अच्छी रणनीति बहुत से ‘मास्टर स्ट्रोकों’ से मिलकर ही बन सकती है। (ये लेखक के अपने विचार हैं)
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अभय कुमार दुबे का कॉलम: राजनीति के पीछे काम कर रही रणनीति के तीन उदाहरण