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- Abhay Kumar Dubey’s Column Coalition Governments Have Been Faltering Despite Having A Majority
अभय कुमार दुबे, अम्बेडकर विवि, दिल्ली में प्रोफेसर
गठबंधन-राजनीति में केवल संख्याबल से ही सरकार स्थिर नहीं रहती। गठजोड़-सहयोगियों के समन्वय, उनके नेताओं की महत्वाकांक्षाओं और राजनीतिक फायदे-नुकसान से जुड़ी रणनीतियों के उतार-चढ़ाव से तय होता है कि सरकार ज्यादा दिन चलेगी या नहीं चलेगी।
ऐसा कई बार हो चुका है कि कोई गठबंधन चुनाव में शानदार जीत हासिल करता है, लेकिन उसकी सरकार पर अस्थिरता की तलवार लटकती है। 2015 में बिहार में बनी महागठबंधन की सरकार इसका सबसे प्रभावी उदाहरण है।
लालू, नीतीश, कांग्रेस और वामपंथियों के इस गठजोड़ ने भाजपा को केवल 53 सीटों पर समेट दिया था। लेकिन सरकार बनते ही उसमें सत्ता के दो केंद्र हो गए। तेजस्वी यादव उपमुख्यमंत्री के तौर पर अपने विधायकों की बैठक अलग से करने लगे।
उनके और मुख्यमंत्री की तरफ से एक-दूसरे को काटने वाले आदेशों का सिलसिला शुरू हो गया। अफसरशाही की निष्ठाएं भी डावांडोल हो गईं। देखते ही देखते नीतीश की एनडीए में वापसी हो गई और तगड़ा बहुमत होने के बावजूद महागठबंधन का प्रयोग बुरी तरह से फ्लॉप रहा।
नब्बे के दशक में यूपी की राजनीति में भाजपा ने मायावती के साथ गठजोड़ सरकार बनाने के तीन प्रयोग किए, लेकिन हर बार सरकार की उम्र बहुत कम निकली। ये सभी सरकारें विपक्ष की राजनीति के दबाव से नहीं गिरी थीं। उनके अपने अंतर्विरोध उन पर भारी पड़ गए थे।
यहां प्रश्न यह है कि महाराष्ट्र में बनी महायुति सरकार पर भी बिहार और यूपी के ये अंदेशे लागू होते हैं या नहीं? क्या चुनावों में शानदार जीत से मिला असाधारण बहुमत गठबंधन-सहयोगियों के खुले और छिपे इरादों के बावजूद उसे टिका पाएगा?
याद कीजिए, भाजपा विधायक दल का नेता चुने जाने के बाद देवेंद्र फडणवीस ने क्या कहा था? उनके शब्द थे, ‘मुख्यमंत्री का पद तो एक तकनीकी व्यवस्था है। सरकार हम तीनों मिलकर चलाएंगे।’ सामान्य तौर पर सरकार कोई भी हो, मुख्यमंत्री अपने मंत्रियों से मिलकर ही सरकार चलाता है। लेकिन मंत्री न उसकी ‘अथॉरिटी’ में हिस्सा बंटाते हैं, और न ही उनकी और मुख्यमंत्री की ‘अथॉरिटी’ बराबर की होती है।
क्या यहां फडणवीस के कहने का मतलब यह नहीं निकलता कि मुख्यमंत्री और दोनों उपमुख्यमंत्रियों के पास समान अधिकार होंगे? अगर स्थिति यही है तो इस सरकार में सत्ता के तीन केंद्र होंगे। महाराष्ट्र की राजनीतिक परिस्थिति की विशिष्टता केवल यहीं खत्म नहीं होती।
चूंकि एकनाथ शिंदे उपमुख्यमंत्री पद लेने के लिए तैयार नहीं थे, इसलिए फडणवीस को उन्हें यह आश्वासन भी देना पड़ा कि सरकार में उनका दखल वैसा ही रहेगा, जैसा मुख्यमंत्री के रूप में उनका था। अगर यह सही है तो सत्ता के तीन केंद्रों में अजित पवार का केंद्र सबसे कमजोर होने के कारण फडणवीस की मातहती में रहेगा। लेकिन शिंदे का केंद्र उनके ढाई साल के मुख्यमंत्रित्व के कारण सत्ता के समांतर-केंद्र की हैसियत ग्रहण कर लेगा।
भाजपा चाहती तो केवल पवार की मदद से ही, शिंदे के बिना भी बहुमत की सरकार बना सकती थी। वह सरकार ज्यादा मजबूत हो सकती थी। उसमें फडणवीस की ‘अथॉरिटी’ के लिए चुनौती न्यूनतम होती। लेकिन चुनाव में सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन करने के बावजूद भाजपा महाराष्ट्र की राजनीति में अपना अकेला दबदबा बनाने में खुद को अभी एक कदम पीछे पाती है।
शिवसेना को विभाजित करने से जुड़ा उसका मकसद अभी सौ फीसदी पूरा नहीं हुआ है। उद्धव का प्रदर्शन बहुत खराब रहा, लेकिन इसके बावजूद उन्होंने मुम्बई की 20 में से 10 सीटें जीत लीं। यानी, बृहन्मुम्बई महानगर पालिका को भाजपा बिना शिंदे की मदद के उद्धव ठाकरे से छीनने को लेकर आश्वस्त नहीं है।
दूसरे, 288 की विधानसभा में 124 मराठा विधायक चुनकर पहुंचे हैं। मराठा आरक्षण आंदोलन जिस समय अपने उठान पर था, वह भाजपा और फडणवीस को अपना निशाना बनाता था। शिंदे के प्रति उसका रुख नरम रहता था।
चुनाव में शरद पवार के पराभव के बाद शिंदे महाराष्ट्र से मराठा समुदाय के नए नेता समझे जा रहे हैं। समुदाय की निगाह में अजित पवार अपने चाचा द्वारा खाली की गई जगह भरने लायक नहीं हैं। यह एक बड़ा सामाजिक-राजनीतिक कारण है, जिसकी वजह से शिंदे को सरकार में शामिल करना जरूरी था।
फडणवीस का पिछला कार्यकाल बताता है कि वे अपनी ‘अथॉरिटी’ का सौ फीसदी उपभोग करना पसंद करते हैं। लेकिन इस बार उन्हें काफी लचीलापन दिखाना होगा। कई बार ऐसी बातें भी माननी पड़ेंगी जो वे अन्यथा न मानते। (ये लेखक के अपने विचार हैं)
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