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- Abhay Kumar Dubey’s Column NDA’s Alliance Partners Are Speaking In A Changed Tone
अभय कुमार दुबे, अम्बेडकर विवि, दिल्ली में प्रोफेसर
लग रहा है कि एनडीए की गैर-भाजपा पार्टियां अब पूरी तरह भाजपामय हो चुकी हैं। यद्यपि यह प्रक्रिया पहले से चल रही थी, लेकिन वक्फ पर संसद में हुई बहस ने इसे प्रमाणित कर दिया है। अगर एनडीए का कोई पार्टनर किसी मुद्दे पर सरकार का विरोध करने से बचना चाहता है तो उसके सामने अपनी आपत्तियों को कायम रखते हुए नपे-तुले अंदाज में किंतु-परंतु के साथ समर्थन करने का विकल्प रहता है।
लेकिन सत्तारूढ़ गठजोड़ के पार्टनर ऐसा नहीं कर रहे हैं। जब अटल-आडवाणी ने एनडीए बनाया था, उस समय ऐसा नहीं था। उस दौर में कई गैर-भाजपा नेताओं ने इस गठजोड़ के सबसे बड़े दल के हिंदुत्ववादी रुझानों पर संयम लगाने की भूमिका निभाई थी। इसके लिए वे सत्ता छोड़ने और गठजोड़ से अलग हटने तक की हद तक चले गए थे।
हमें याद है कि गोधरा कांड के बाद गुजरात में हुई साम्प्रदायिक हिंसा के विरुद्ध रामविलास पासवान ने दिल्ली में मंत्रिपद से इस्तीफा दे दिया था। 2013 में मोदी जैसे ही पीएम पद के उम्मीदवार बने, नीतीश कुमार ने एनडीए छोड़ दिया था। उन्हीं रामविलास के उत्तराधिकारी चिराग पासवान वक्फ पर अपने मुसलमान जनाधार की किसी भी मांग को उठाने के बजाय बिना शर्त समर्थन देते नजर आए।
उन्हीं नीतीश के प्रतिनिधि ललन सिंह संसद में किसी भाजपा सांसद की तरह बोलते हुए सुने गए। किसी तरह का संकोच या गैर-साम्प्रदायिक राजनीति करने वाले नेताओं द्वारा अपनाया जाने वाला वाणी का संयम उनके वक्तव्य से गैर-हाजिर था।
दरअसल, एनडीए के भीतर की राजनीति पहले जैसी नहीं रह गई है। वक्फ बिल पर बनी जेपीसी की कार्यवाही पर नजर डालने से यह स्पष्ट हो जाता है। पिछले साल अगस्त में जैसे ही यह विधेयक सदन के पटल पर रखा गया, वैसे ही तेलुगु देशम के एक सांसद ने खड़े हो कर इसे जेपीसी के हवाले करने का सुझाव दे दिया।
संसदीय कार्यमंत्री किरण रिजिजू के पास एक पर्ची आई, जिसे देखकर उन्होंने पूरी तत्परता से इस मांग को मान लिया। जेपीसी में एनडीए सदस्य बहुमत में थे, और विपक्ष के अल्पमत में। इस संरचना का लाभ उठाते हुए समिति की कार्यवाही एक खास तरह की डिजाइन के तहत चलाई गई। गैर-भाजपा विपक्ष ने बिल में संशोधन के कुल 45 सुझाव दिए, जिन्हें फौरन खारिज कर दिया गया। एनडीए के गैर-भाजपा सदस्यों ने 14 सुझाव दिए, जिन्हें फटाफट स्वीकार लिया गया।
इस तरह इस समिति के गठन द्वारा सत्तारूढ़ गठजोड़ के गैर-भाजपा सदस्यों के लिए बिल का समर्थन करने की दलीलें मोटे तौर पर तैयार हो गईं।अगर इन 14 सुझावों पर देखा जाए तो साफ हो जाता है कि इनमें से एक भी ऐसा नहीं है जो आलोचकों द्वारा विधेयक पर की जाने वाली छह-सात प्रमुख आपत्तियों को किसी तरह से सम्बोधित करता हो।
जेपीसी द्वारा आजमाई गई यह युक्ति शक पैदा करती है कि जदयू, टीडीपी, लोजपा और रालोद शुरू से ही इस प्रश्न पर स्वतंत्र रूप से सोचने के बजाय भाजपा के साथ मिलकर इस रणनीति पर काम कर रहे थे। मुसलमान वोटों को खोने का डर भी उन्हें नहीं रोक पाया। इसका मतलब यह नहीं है कि नीतीश, नायडू, चिराग, जयंत को मुसलमान वोटों की जरूरत नहीं रह गई है।
लेकिन जब इन नेताओं ने तराजू के एक पलड़े पर इन वोटों, और दूसरे पर केंद्र सरकार में भागीदारी के मौजूदा बंदोबस्त को रखा तो उन्हें लगा होगा कि अगर थोड़े-बहुत वोट कम भी होते हैं तो काम चलाया जा सकता है। 90 के दशक में जब एनडीए बना था, तो स्थिति अलग तरह की थी।
वह एनडीए कांग्रेस द्वारा थोपी जाने वाली केंद्रीकरणवादी नीतियों और क्षेत्रीय शक्तियों को कोने में धकेलने के आग्रह के खिलाफ एकजुट हुआ था। तब भाजपा अपने विचारधारात्मक मुद्दों को ताक पर रखने के लिए भी तैयार हो गई थी। लेकिन आज सभी दलों के सामने सिर्फ एक ही मुद्दा है- सत्ता में साझेदारी का। ऐसी सत्ता, जो अब कहीं ज्यादा स्थायी है।
- 90 के दशक में जब एनडीए बना था, तो स्थिति अलग तरह की थी। लेकिन आज सभी दलों के सामने सिर्फ एक ही मुद्दा है- सत्ता में साझेदारी का। एक ऐसी सत्ता, जो अटल-आडवाणी के जमाने की तुलना में अब कहीं ज्यादा स्थायी है।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)

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