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पलकी शर्मा का कॉलम:अपने बदहाल पड़ोसियों से घिर गया है भारत Politics & News

पलकी शर्मा मैनेजिंग एडिटर FirstPost - Dainik Bhaskar

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1 दिन पहले

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पलकी शर्मा मैनेजिंग एडिटर FirstPost - Dainik Bhaskar

पलकी शर्मा मैनेजिंग एडिटर FirstPost

बांग्लादेश में अफरातफरी है। प्रधानमंत्री शेख हसीना देश छोड़कर भाग गई हैं। सड़कों पर अराजकता है। सैकड़ों लोग मारे गए हैं। बाकी दुनिया चुपचाप यह सब देख रही है, वहीं भारत इसके लिए खुद को तैयार कर रहा है, क्योंकि बांग्लादेश की घटनाओं का उस पर सीधा असर होगा।

हसीना का जाना नई दिल्ली के लिए कई मायनों में झटका है। इसका यह मतलब भी है कि भारत ने पड़ोस में अपने इकलौते स्थिर साथी को अब खो दिया है। भारत के चारों ओर के नक्शे को देखें तो आप पाएंगे कि भूगोल ने हमें कितने बदहाल पड़ोसियों से नवाजा है।

सबसे पहले तो हमारे पड़ोस में अफगानिस्तान है, जिस पर कट्टरपंथी तालिबान का राज है। भारत-विरोधी समूहों को समर्थन देने का उसका एक इतिहास रहा है। फिर, पाकिस्तान के क्या कहने, जो परमाणु हथियारों से लैस अफगानिस्तान जैसा ही है।

यह मुल्क राजनीतिक अस्थिरता का पर्याय है। पाकिस्तान के एक भी वजीरे-आजम ने अपना कार्यकाल पूरा नहीं किया है। हमेशा वहां की फौज ने उनके कार्यकाल में खलल डाला है। दक्षिण में श्रीलंका और मालदीव हैं। श्रीलंका 2022 में दिवालिया हो गया था।

वहां से सामने आई तस्वीरें आज के बांग्लादेश से काफी मिलती-जुलती थीं। वहां भी प्रदर्शनकारियों ने राष्ट्रपति भवन पर धावा बोल दिया था और शासक को भागना पड़ा था। मालदीव एक समय भारत का सहयोगी हुआ करता था। लेकिन उनके नए राष्ट्रपति के सुर बदले हुए हैं। वे इंडिया-आउट का नारा बुलंद किए हुए हैं।

फिर नेपाल की बात करें। उनके प्रधानमंत्री केपी शर्मा ओली हैं। लेकिन मेरा सुझाव है कि आप इसे कुछ-कुछ समय में जांचते रहें, क्योंकि वहां पर प्रधानमंत्री नियमित बदलते रहते हैं। नेपाल में गत 16 वर्षों में 14 सरकारें बदल चुकी हैं।

हालात इतने बदहाल हैं कि वहां पर कुछ लोग राजशाही को फिर से बहाल करना चाहते हैं। उत्तर दिशा में ही थोड़ा आगे चीन है, जो विस्तारवादी, अलोकतांत्रिक और अपने आस-पड़ोस के देशों के साथ धौंस-डपट करने वाला देश है।

वह भारत के भूखंडों पर अपनी मिल्कियत जताता रहता है। भूटान में घरेलू राजनीति स्थिर है, लेकिन वह चीन के साथ सीमा-समझौते पर हस्ताक्षर करना चाहता है, और यह भारत के लिए चिंता का बायस है।

म्यांमार की भी बात कर लें, जहां सेना सत्ता में है। वहां के अधिकांश राजनेता सलाखों के पीछे हैं और वहां गृहयुद्ध चल रहा है। ले-देकर एक बांग्लादेश ही बचा था, जिस पर नई दिल्ली भरोसा कर सकती थी। लेकिन हसीना की विदाई के बाद अब आप ढाका से भी कोई उम्मीदें नहीं लगाइए।

इस परिदृश्य पर विहंगम दृष्टि डालने पर आपको क्या मिलता है? एक बेहद अशांत पड़ोस, जो कट्टरपंथियों, सैन्य शासकों, दिवालिया अर्थव्यवस्थाओं और जलवायु-परिवर्तन के कारण डूबते देशों से भरा है। इन सबके बीच में भारत है, जो अंतिम व्यक्ति की तरह तनकर खड़ा है।

यह भारत के भविष्य को कैसे प्रभावित करेगा? मोटे तौर पर, तीन तरीकों से। एक, नई दिल्ली को हर समय सतर्क रहना होगा। बांग्लादेश की सीमा को ही देखें। हिंसा की तमाम वारदातें बांग्लादेश के अंदर हो रही हैं, फिर भी भारतीय सीमा-बल सतर्क हैं।

पाकिस्तान और चीन के साथ भी ऐसा ही है। भारत शांति कायम रखने के लिए इन देशों पर भरोसा नहीं कर सकता। जिसका मतलब है अधिक बलों की तैनाती, अधिक रक्षा खर्च और सरहद पर अधिक बुनियादी ढांचों का निर्माण।

दूसरे, ये हालात चीन जैसे हमारे प्रतिद्वंद्वियों को आगे बढ़ने का मौका देते हैं। पैटर्न पर गौर करें। मालदीव की इंडिया-आउट नीति का किसने फायदा उठाया? चीन ने। श्रीलंका के दिवालियेपन से कौन फायदे में रहा? फिर से चीन। भूटान से सीमा विवाद सुलझाने के बारे में कौन बात कर रहा है? चीन। भारत अफगानिस्तान या म्यांमार जैसी अलोकतांत्रिक सरकारों के साथ काम नहीं करेगा, लेकिन बीजिंग को इससे ऐतराज नहीं है। नतीजा, चीन ने भारत के आस-पड़ोस में बढ़त हासिल कर ली है।

हमारे इर्द-गिर्द मची यह उथलपुथल हमारे वैश्विक एजेंडे को भी बाधित करती है। हमने प्रधानमंत्री को इसके बारे में बात करते हुए सुना है। वे भारत को विश्व-बंधु, यानी दुनिया का मित्र बनाना चाहते हैं। लेकिन जैसा कि कहते हैं, अच्छी पहल हमेशा घर से शुरू होती है। जब आपका क्षेत्र ही आग की लपटों से घिरा हो तो आप दुनिया पर ध्यान केंद्रित नहीं कर सकते। वैश्विक दृष्टिकोण के लिए आपको क्षेत्रीय स्थिरता की आवश्यकता होती है।

हमारे पड़ोस में जो कुछ हो रहा है, वो सम्प्रभु राष्ट्रों की अंदरूनी समस्याएं हैं। क्या भारत फिर भी उनकी मदद कर सकता है? हां, कर सकता है। क्योंकि इस क्षेत्र में भारत का रसूख है। अगर आप चीन को अलग रख दें, तो हर दूसरे पड़ोसी के भारत के साथ ऐतिहासिक संबंध हैं।

उनमें से कुछ तो भारत से टूटकर ही बने हैं। साथ ही, नई दिल्ली बदलाव लाने के लिए सबसे बेहतर जगह है। भारत की आबादी 1.4 अरब है। उसके पड़ोसियों की कुल आबादी 50 करोड़ है। अर्थव्यवस्था के साथ भी ऐसा ही है। भारत की जीडीपी तीन ट्रिलियन डॉलर है। बाकी सब मिलाकर लगभग एक ट्रिलियन हैं।

ऐसे में भारत के सामने दो विकल्प हैं। या तो आस-पड़ोस की अराजकता को नजरअंदाज करे और अपनी विकास-यात्रा पर फोकस बनाए रखे। या, अपने प्रभाव का इस्तेमाल करके चीजों को सही दिशा में लेकर जाए। पाकिस्तान के साथ इस तरह की मशक्कत बेकार है। लेकिन दूसरे देशों से फिर भी उम्मीद की जा सकती है।

हम इस क्षेत्र में अपने प्रभाव का इस्तेमाल कर सकते हैं…

हमारे पड़ोस में जो कुछ हो रहा है, वो सम्प्रभु राष्ट्रों की अंदरूनी समस्याएं हैं। क्या भारत उनकी मदद कर सकता है? हां, कर सकता है। क्योंकि इस क्षेत्र में भारत का रसूख है। हर दूसरे पड़ोसी के भारत के साथ ऐतिहासिक संबंध हैं।
(ये लेखिका के अपने विचार हैं)

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